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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
सोम मरुव धूव परिणाविय, जायवि तहि जन्न तह आविय । नच्चइ हरिसिय वज्जहिं तूरा, देवइ ताम्ब मणोरह पूरा ।। गय सुकुमाल रास।।२२।। मेरु ठामह न चलइ जाव, जां चंद दिवायर । सेषुनागु जां धरइ भूमि जां सातई सायर । । धम्मह विसउ जां जगह मही, धीर निश्चल होए । कूमरउ रायहं तणउ रासु तां नंदउ लोए ।। -कुमारपाल रास
अपभ्रंश के रूपों से प्रभावित वैसे अनेक रचनाएं और हैं पर कान्ह की “अंचलगच्छ नायक गुरु रास” रचना (सं. १४२०) देखिए जो अपभ्रंश से बोझिल है -
रिसह जिणु नमिवि गुरु वयण अविचल धरी । पंच परमेट्ठि महमंतु मनिदृदु करी । अंचल गच्छि गछराय इणि अणुकमि । सुगुरु वन्नेसुउ गुरुभक्ति मदविक्कमिइ ॥ १ ॥
आदिकाल की इस भाषिक और साहित्यिक प्रवृत्ति ने मध्यकालीन कवियों को बेहद प्रभावित किया । विषय, भाषा शैली और परम्परा का अनुसरण कर उन्होंने आध्यात्मिक और भक्ति मूलक रचनाएं लिखीं। इन रचनाओं में उन्होंने आदिकालीन काव्य शैलियों और काव्य रूढियों का भी भरसक उपयोग किया। हिन्दी के आख्यानक काव्य अपभ्रंश साहित्य में ग्रंथित लोक कथाओं पर खड़े हुए हैं। देवसेन, जोइन्दु और रामसिंह जैसे रहस्यवादी जैन कवियों के प्रभाव को हिन्दी संत साहित्य पर आसानी से देखा जा सकता है। भाषा, छन्द, विधान और काव्य रूपों की दृष्टि से भी अपभ्रंश काव्यगत वसन्त ऋतु
वर्णन