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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
कुलकम अपभ्रंश की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। कवि आसिग का जीवदया रास (वि. सं. १२५७, सन् १२००) यद्यपि आकार में छोटा है पर प्रकार की दृष्टि से उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। इसमें संसार का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन्हीं कवि का चन्दनवाला रास है जिसमें उसने नारी की संवदेना को बड़े ही सरस ढंग से उकेरा है, अभिव्यक्त किया है । भाषा की दृष्टि से देखिये -
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भुंभर भोली ता सुकुमाला नाउ दीन्हु तसु चंदण बाला ।। २१ ।। आधो खंडा तप किआ, किव आभइ बहु सुक्ख निहाणु ।। २६ ।।
विजयसेन सूरि का रेवंतगिरि रास (वि. सं. १२८७, सन् १२३० ) ऐतिहासिकरास है जिसमें रेवंतगिरि जैन तीर्थ यात्रा का वर्णन है। यह चार कडवों में विभक्त है। इसमें वस्तुपाल, तेजपाल के संघ द्वारा तीर्थंकर नेमिनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठा का गीतिपरक वर्णन है। भाषा प्रांजल और शैली आकर्षक है। इसी तरह सुमतिगणि को नेमिनाथ रास (सं. १२९५), देवेन्द्र सूरि का गयसुकुमाल रास (सं. १३००), पल्हण का आबूरास १३ वीं शती), प्रज्ञातिलक का कछूली रास (सं. १३६३), अम्बदेव का समरा रासु (सं. १३७१) शालिभद्र सूरि का पंचपांडव चरित रास ( सं १४१०), विनयप्रभ का गौतम स्वामी रास (सं. १४१२), देवप्रभ का कुमारपाल रास (सं. १४५०), आदि कृतियां विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की कुछ फागु कृतियां भी इसमें सम्मिलित की जा सकती हैं। इन फागु कृतियों में जिनपद्म की सिरि थूलिभद्द फागु (सं. १३९०), राजशेखर सूरि का नेमिनाथ फागु (सं. १४०५), कतिपय अज्ञात कवियों की जिन चन्द्र सूरि फागु (सं. १३४१), वसन्त विलास फागु सं. १४०० ) का भी उल्लेख करना आवश्यक है । भाषा की दृष्टि यहां देखिए कितना सामीप्य है