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________________ आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ अध्यात्मवादी कवियों में दसवीं शताब्दी के देवसेन और जोइन्दु तथा रामसिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। देवसेंन का सावय धम्म दोहा श्रावकों के लिये नीतिपरक उपदेश प्रस्तुत करता है। जोइन्दु के परमात्मप्रकाश और योगसार में सरल भाषा में संसारी आत्मा को परमात्मपद प्राप्ति का मार्ग बताया गया है । रामसिंह ने पाहुड़ दोहा में सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरित्र के व्यावहारिक स्वरूप को प्रतिपादित किया है। इन तीनों आचार्यों के ग्रन्थों की भाषा हिन्दी के आदिकाल की ओर झुकती हुई दिखायी देती है। हेमचन्द्र (१०८८११७२ ई.) तक आते-आते यह प्रवृत्ति और अधिक परिलक्षित होने लगती है - भल्ला हुआ जो मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु । लज्जेज्जन्तु वयंसियहु, जइ भग्ग धरु एंतु ।। 91 हिन्दी के आदिकाल को अधिकांश रूप में जैन कवियों ने समृद्ध किया है। इनमें गुजराती और राजस्थानी कवियों का विशेष योगदान रहा है। आदिकाल के प्रथम हिन्दी कवि के रूप में भरतेश्वर बाहुबली के रचयिता (सं. १२४१) शालिभद्र सूरि को स्वीकार किया जाने लगा है। यह रचना पश्चिमी राजस्थानी की है जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप उद्घाटित हुआ है। इसमें २०३ छन्द हैं। कथा का विभाजन वसतु, ठवणि, धउल, त्रोटक में किया गया है। नाटकीय संवाद सरस, सरल और प्रभावक है । भाषा की सरलता उदाहरणीय है - चन्द्र चूड विज्जाहर राउ, तिणि वातइं मनि विहीय विसाउ । हा कुल मण्डण हा कृलवीर, हा समरंगणि साहस धीर । । ठवणि १३ ।। जिनदत्त सूरि के चर्चरी उपदेश, रसावनरास और काल स्वरूप
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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