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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
जैन साहित्य अपभ्रंश साहित्य की रूढियों पर लिखा गया है। हिन्दी जैनाचार्यो का आदिकालीन हिन्दी साहित्य के विकास में निःसन्देह महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसका सही मूल्यांकन अभी भी अपेक्षित है।
हिन्दी जैन गीति काव्य परंपरा
जैसा हम पहले लिख चुके हैं, आदिकाल का काल निर्धारण और उसकी प्रामाणिक रचनाएं एक विवाद का विषय रहा है। जार्ज ग्रियर्सन से लेकर गणपति चन्द्र गुप्त तक इस विवाद ने अनेक मुद्दे बनाये पर उनका समाधान एक मत से कहीं नही हो पाया। जार्ज ग्रियर्सन ने चारणकाल (७००-१३०० ई.) की संज्ञा देकर उसके जिन नौ कवियों का उल्लेख किया है उनमें चन्दवरदायी को छोड़कर शेष कवियों की रचनायें ही उपलब्ध नहीं होती । इसके बाद मिश्रबन्धुओं ने “मिश्र बन्धु विनोद” के प्रथम संस्करण में इस काल को आरम्भिक काल (सं. ७००-१४४४) कह कर उसमें १९ कवियों को स्थान दिया है। पर उन पर मन्थन होने के बाद अधिकांश कवि प्रामाणिकता की सीमा से बाहर हो जाते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी जैन काव्यों को कोई स्थान नहीं दिया। डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को दो खण्डों में विभाजित किया है- संधिकाल (सं. ७५०१२००) एवं चारणकाल (१०००-१३७५ सं.) । इसमें जैन साहित्य को समाहित करने का प्रयत्न हुआ है। उन्होंने उसे दो वर्गों में विभक्त किया है (हिन्दी साहित्य, पृष्ट १५) । - साहित्यिक अपभ्रंश रचनाएं, और (२) अपभ्रंश परवर्ती लोक भाषा या प्रारम्भिक हिन्दी रचनाएं। प्रथम वर्ग में स्वयंभूदेव, देवसेन, पुष्पदंत, धनपाल, मुनि रामसिंह,