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________________ आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ जैसे "जिनवर स्वामी मुगतिहिं गामी सिद्धिनयर मंउणो (ब्रह्म जिनदास) । छन्द सौकर्म के लिए स्वरों को लघु या दीर्घ करने के साथ ही परवर्ती वर्णों को द्वित्व करके पूर्ववर्ती लघु स्वर को दीर्घ करने की प्रथा भी चल पडी थी। जैसे भखै, रखै के स्थान पर भक्खै, रक्खै आदि । स्तवयधम्मदोहा में पुरानी हिन्दी का रूप देखिए - सहु धम्म जो आयरइ चउ वणा मह कोई । सो णरणारी भव्वयण सुरइय पत्वह सोइ ।। इसी तरह योगसार के दोहे को देखिए सो सिवसंकर विणहुसो, सो रुद्दवि सो बुद्धा । सो जिण ईसरू बंभु सो, सो अनंतु सो सिद्धा ।। 85 - शाह रयण के जिनपति सूरि धवल गीतम् (सं. १२७८ ) की भाषा में सरलता देखिए - वीर जिणेसर नमइ सुरेसर तस मह पणमिय पय कमले । युगपति जिनपति सूरि गुण गाइसो भक्ति भर हरसिहि मन रमले । आदिकालीन हिन्दी जैन कवियो द्वारा लिखित साहित्य का मूल्यांकन करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में उनका ही साहित्य लिखित रूप में अधिक मिलता है। अपभ्रंश की कथानक रूढियां, भाषिक प्रवृत्तियां और काव्य विधायें यहां भलीभांति विकसित हुई हैं। यहीं से संक्रमित होकर इन प्रवृत्तियों ने मध्यकालीन कवियों को भी बेहद प्रभावित किया है। विषय, भाषा शैली और परम्परा का अनुसरण कर उन्होंने आध्यात्मिक और भक्ति मूलक रचनायें लिखीं। इन रचनाओं में उन्होंने आदिकालीन काव्य शैलियों और काव्य रूढियों का भी भरसक प्रयोग किया। वस्तुतः समूचा हिन्दी
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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