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________________ 84 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना संधि भी आकार-प्रकार में प्रबन्धकाव्य में लघु रूप ही हैं। रत्नप्रभकृत अंतरंगरास (सं. १२३७), जिनप्रभसूरिकृत मयणरेहासंधि, अनाथी संधि, जीवानुशास्ति संधि, जयदेव गणि की भावना संधि इस विधा की उल्लेखनीय रचनायें हैं। इसी तरह मातृका भी एक प्रकार का काव्य रूप है जो बारह खडी पर आधारित है। छद्म की दूहामातृका ऐसी ही रचना है। उन्हीं की एक और रचना है जो सालीभद्रकक्क के नाम से विश्रुत है। यह कक्क शैली मातृका जैसी ही है। इसमें भी 'अ' से चलकर 'क्ष' पर रचना समाप्त होती है। रेलुआ नाम की रचनायें भी ऐसी ही हैं। चारित्रगणि की जिनचन्द्रसूरि रेलुआ, जयधर्म की जिनकुशलसूरि रेलुआ इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। १४वीं शती की रेलुआ संज्ञक कुछ अन्य रचनायें भी हैं - जिनकुशल सूरि रेलुआ, सालिभद्र रेलुआ, गुरावली रेलुआ आदि। स्तवन, प्रकरण, गीत, स्तोत्र, छप्पय आदि भी काव्य विधायें यहां दृष्टव्य हैं। भाषादर्शन अपभ्रंश से अवहट्ट होती हुई विविध सीढियों को पार करती हुई हिन्दी भाषा मरु-गुर्जर, मैथिली, अवधी, बुन्देली आदि रूपों में दिखाई देती है। यहां अपभ्रंश का प्रभाव अधिक होना स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ उकार बहुल प्रवृत्ति देखिए - बनते बन छिपतउ फिरउ गव्हर वनहं निकुंज। भधखउ भोजन मांगिबा बोवलि आवउ मुंज ।। (भोजनप्रबन्ध) 'हि' और 'हिं' विभक्ति का प्रयोग सभी कारकों में होने लगा
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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