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________________ The Apabhraṁśa Passages of Abhinavagupta अणुभरिभरि माणसपाणपवण जिवडा निहल मतदाणु आवाहणु अद्धकलण (XXV) (XXVI) (XXVII) (XXIX) [(XXV) (XXVI) (XXVIII) माणस - पाण-पवण-धी-साम तं जि घडाइनिहल पर भइरव (XXVII) (XXVIII) (XXIX) अहमणिसच्चिअपाणिमणु । वीसा सुपूरित जखिणु ॥ परभरवणाहहु होइत । प्रअणुसणिहाणुइउ अहिणअउड्डु || निर्बाहाराएतिलडे चिअर हई त्तत्त्व | ( 10. 1, 2, 3, 4, 5.) भुवण-जालु सअलउ परिमरिसह तत्त-भाउ कलणोइ विमरिसह पंच- कलामउ एहु महेसरु भरिउ विबोह तरंग महासरु असलउ अद्ध-जालु निअ अणि (?) अणु भरि भरि अपह मणि अह सीसइ तत्ताहं सरूउ । सीसइ पंच कलाहं सरूउ || कुणइ विउज्झइ इच्छइ सुहमउ । सोचिन भासइ भव-तरू - विसरउ || - सअलभा अपरि उण्णउ परभैरउ अत्ताणु जाइवि अगणि सुष्णउ जोअभिमी सत्ताणु । परिमरिसेह हरो ( ? ) सोच्चि पाणि मणु ॥ जंजिखणु । हु होइ त || मंत दाणु आवाहण असणु (?) छन्विह अद्ध-करण - निब्बाहर (?) भुवन-जालं सकलं परिमर्शयत अथ कथ्यते तत्त्वानां स्वरूपम् । तत्व भावं नया विमर्शयत कथ्यते पञ्च - कलानां स्वरूपम् । हाणु ज्ञउ अहिणव- उत्तु । एतिलडु च्चि एहउ तत्तु ॥ पञ्च- कलामयः एषः महेश्वरः करोति विबुध्यते इच्छया सुखमयम् । भृतं विबोध-दरङ्ग महासरः स एव भासते भव-तरु - विसरः । सकलमध्व - जालं निज - XXX परिमर्शयत Xx । चेतनं भृत्वा भृत्वा आत्मनः मनसि स एव Xx X X I मानस-प्राण - पवन धी-शाम- सुपूरितं यदेव क्षणम् । तदेव X XX X पर - भैरव नाथस्य भवति तन्ः ॥ मन्त्र-दानमाव!हनं XXX संनिधानमेतदभिनवोक्तम् । षड्विधाध्व-कलना - XXX एतावदेव एतद् तत्त्वम् ॥ ] XXX, XXXI 285
SR No.022756
Book TitleIndological Studies
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1993
Total Pages376
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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