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Prakrit and Ababhramsa Studies
XXII
परमेसरसोसणुसुणिरूइउ सुणिविम अलअद्धाणउ । झहुज्सतिसरीरिपवणि संदेअ णिअपेक्खन्तउ पहुरइ परिउण्णु ॥ (7.1) परमेसर-सासण-सुणिरूइउ सुणिवि सअल-अद्धाणउ पुण्णु(?) । शत्ति सरीरि पवणि संवेअणि पेक्खंतउ पफुरइ परिउण्णु ।। [परमेश्वर-शासन सुनिरूपितः श्रुत्वा सकलावा पुण्यः(?) । झटिति शरीरे पवने संवेदने प्रेक्षमाणः प्रस्फुरति परिपूर्णः ॥]
XXIII
जे सहु एकीभाउलये विणु अच्छइ एहु विबोह समुद्द । सो पशु भइरवु हो इलये विणु अन्त वजिउ अस असमुद्द ।। (14.1) में सहु एक्कोभाउ लएविणु अच्छइ एह विबोह-समुद्दि । सो पसु भइवु होइ लएविणु उत्ताणउ जिउ अमअ-समुदि । [येन सह एकीभावम् प्राप्य आस्ते एषः विबोध समुद्रे । सः पशुः भैरवः भवति प्राप्य आत्मानम् यथा अमृत-समुद्रे ।]
XXIV जो परि उण्ण सत्थसं अणु तस्स अणुग्गहमेतु पवित्ति । कामणाइ जो पुणुसो साह उतइ उआ अरुहुरइ णहु चित्ति ॥ (18.1) जो परिउण्ण-सस्थ संपण्णउ तस्स अणुग्गह-मेत्त पवित्ति । कामणाइ जो पुणु सो साहउ तह उपाअ पफुरइ(?) णहु चित्ति ।। [यः परिपूर्ण-शास्त्र-संपन्नः तस्य अनुग्रह-मा पवित्रे । xxx यः पुनः स साधयतु तथा उपायः प्रस्फुरति न खलु चिते ।।]
XXV, XXVI, XXVII, XXVIII, XXIX भुवनजालस अलउ परिसरसहअवसीसइतत्ताहंसकूउ । तत्तब्भाउकलणा इविमरिसहसीसइपच्चकलाहंसरूउ ।। पञ्चकलामउएह महेसरकुणइविउज्झइ । इच्छइसुहमउ भरिहविबोधतरङ्गमहासरु ।। सोच्चिअभासइ भवतरुविसरउ । सअलउअद्धजालु निअधअणिपरिमरिमेहहरो ॥