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________________ सुदशन-चरित / 'पड़ी कुछ कर नहीं सकती, सुदर्शनका कुछ कर न सकी / जिसकी इतनी धीरता, जिसका मन इतना अविकारी उस महात्माका दुष्ट पुरुष वा विकार-वश हुई वेश्या क्या कर सकती है / यह संभव है कि कभी दैवयोगसे पर्वत जल जायँ, पर यह कभी संभव नहीं कि योगियोंका निर्विकल्प मन विकारोंसे चल जाय / वे महात्मा धन्य हैं और वे ही संसारमें पूज्य हैं जिनका मन दुःसह परीषह या कष्टोंके आनेपर भी न चला / सुदर्शनकी इस स्थिरताने देवदत्ताके अभिमानको नष्ट कर दिया। वह सोचने लगी, यह बड़ा धीरजवान् है-इसे मैं किसी तरह विचलित नहीं कर सकती। इसे मैं अब अपने घरसे बाहर भी कैसे करूँगी ? इस विचारके साथ उसे एक युक्ति सूझी। रातका समय तो था ही और मुनि भी शरीरका मोह छोड़कर आत्मध्यान कर रहे थे, सो इस योगको अच्छा समझ देवदत्ता मुनिको कन्धेपर उठाये घरसे निकली और चौकन्नी हो इधर उधर देखती हुई जलती चितासे भयंकर मसानमें ले-जाकर उसने उन्हें कायोत्सर्ग ध्यानसे खड़ा कर दिया। इस प्रकार अपने आत्मबलसे जिस महात्मा सुदर्शनने देवदत्ता द्वारा किये गये, ब्रह्मचर्यको नष्ट करनेवाले दुःसह काम-विकारोंपर विनय लाभ किया, और जो अपने मन-वचन-कायकी क्रियाओंको रोककर ऐसा क्लवान् बन गया कि जिसे पर्वत भी विचलित नहीं कर सकते थे। यह जानकर बुद्धिमानोंको परीषह-जय द्वारा अपना आत्मबल प्रकट करना चाहिए। वे अर्हन्त भगवान्, जो संसार द्वारा वंदनीय और सब जीवोंका
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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