________________ संकटपर विजय / [ 91 होगया-सब क्रिया-कर्मसे रहित हो वह बड़ी स्थिरतासे ध्यान करने लगा / धन्य महात्मा सुदर्शन ! देवदत्ता उन्हें फिर उसी तरह ध्यान-निश्चल देखकर ईर्षासे दुःख देनेवाले कामविकारोंके करनेको तैयार होगई और मुनिसे बोली-सुनो, मैं तुमसे अन्तिम बात कहती हूँ। यदि तुम मेरी बात न मानोगे तो मैं अब ऐसा घोर उपद्रव करूँगी कि उससे तुम्हारी जान ही चली जायगी। इसपर सुदर्शन कुछ न कहकर ध्यान करते रहे / उन्हें कुछ न कहते देखकर देवदत्ताने उनसे अनेक प्रकार कामके बढ़ानेवाले वचन कहे, उनकी गुह्येन्द्रीको अपने हाथोंसे उत्तेजित कर कामको बढ़ानेवाली नाना भाँति विकार चेष्टाये की और मनमानी बुरी-भली सुनाई / इस प्रकार कोई तीन दिन और तीन राततक उसने जितना उससे बना, मुनिपर उपसर्ग किया, उन्हें दुःसह कष्ट दिया। पर सुदर्शनने पर्वतके समान स्थिर हो इन सब दुःसह परिषहोंको सहा- महातपस्वी, महामना सुदर्शन ऐसे समय भी रत्तीभर अपने ध्यानसे न चले। देवदत्ताने सुदर्शनको इतना कष्ट दिया उससे न तो उन्हें उसपर कुछ द्वेष हुआ और न उसकी काम-सुख सम्बन्धी बातोंसे उन्हें किसी प्रकारका रागभाव-प्रेम हुआ। उन्होंने द्वेष या प्रेम सम्बन्धी कलुषताका हृदयमें विचारतक भी न आने दिया। वे मध्यस्थ बने रहे। इससे उनके हृदयकी जो निर्मलता थी वह आत्म-ध्यानके सम्बन्धसे बहुत ही बढ़ गई। सुदर्शनको ऐसा स्थिर अचल देखकर देवदत्ता उद्विग्न तो बहुत हुई, पर वह उस अग्निकी तरह, जो तृण रहित जमीनपर