SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुदर्शन-चरित / कारण, वे तो विचारते ही रहते हैं और काल क्षणभरमें उन्हें उठा ले उड़ता है। यह आयु, जिसे हम भ्रमसे स्थिर समझ रहे हैं, हाथकी उँगलियोंके छिद्रोंसे गिरते हुए पानीकी तरह क्षण क्षणमें नष्ट हो रही है, इन्द्रिया शिथिल पड़ती जा रही हैं और जवानी विलीन होती जाती है। इसलिए जबतक कि शरीर स्वस्थ है-नीरोग है, इन्द्रियोंकी शक्ति नहीं घटी है, बुद्धि बराबर काम दे रही है और संयम, व्रत, उपवासादिमें बराबर प्रयत्न है तबतक इस मोहरूपी योद्धाको और साथ ही काम तथा विषयोंको नष्टकर स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्तिके लिए जितना शीघ्र बन सके तप ग्रहण करलेना उचित है। यही सब जानकर और यह समझकर, कि मौत सिरपर सवार है, अपने आत्म-कल्याणके लिए योगी लोग तप और योगाभ्यास द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंको नष्टकर आत्महितका मार्ग धर्म-साधन करते हैं। सुदर्शन मुनिके इस प्रकार समझानेपर देवदत्ता निरुत्तर होगई / जैसे नागदमनी नामक औषधिसे नागिन निर्विष हो जाती है। यह सही है कि देवदत्ता सुदर्शन मुनिको कुछ उत्तर न दे सकी, पर उसकी ईर्षा पहलेसे कोई हनार गुणी बढ़ गई / फिर उसने सुदर्शनको सिर्फ यह कहकर, कि तुम्हारी यह उमर तप योग्य नहीं, तप तुम बुढ़ापेमें धारण करना, उठा कर अपने पलंग पर, जिसपर कि एक बड़ा नरम गद्दा बिछा हुआ था, लिटा लिया और काम-सुखके लिए वह उनके साथ अनेक प्रकारकी विकार चेष्टायें करने लगी। देवदत्ताको इस प्रकार उपसर्ग करते देखकर सुदर्शनने संन्यास लेकर प्रतिज्ञा की कि यदि इस उपसर्गमें मेरे प्राण चले जाय तब तो मैं अपने आत्महितके
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy