________________ संकटपर विनय / [87 होता उसी प्रकार विषय-भोगों द्वारा कभी सुखका लेश भी नहीं मिलता। यह समझकर जो विद्वान् हैं-विचारवान् हैं उन्हें उचित है कि वे इन आत्माके महान् शत्रु विषय-भोगोंको अच्छे तेज वैराग्यरूपी खड्गसे मारकर सुखके कारण तपको स्वीकार करें। और देवदत्ता, तूने जो यह कहा कि तप बुढ़ापेमें करना चाहिए, सो भी ठीक नहीं / तेरा यह कहना मिथ्या है और अपने तथा दूसरोंके दुःखका कारण है। क्योंकि कितने तो बेचारे ऐसे अभागे हैं कि वे गर्भहीमें मर जाते हैं और कितने पैदा होते होते मर जाते हैं। कितने बालपनमें मर जाते हैं और कितने कुमार अवस्थामें मर जाते हैं। कितने जवान होकर मर जाते और कितने कुछ ढलती उमरमें ही मर जाते हैं। अग्नि सुखे काठके ढेरके ढेर जैसे जलाकर खाक कर देती है उसी तरह यह दुर्बुद्धि काल बालक, युवा, वृद्ध आदिका खयाल न कर सबको मौतके मुखमें डाल देता है / यह पापी काल प्रतिदिन न जाने कितने बालक, जवान और बूढोंको अपने सदा जारी रहनेवाले आगमनसे मारकर मिट्टीमें मिला देता है / इसलिए कालका तो कोई निश्चय नहीं कि वह किसीको तो मारे और किसीको न मारे; किन्तु उसके लिए तो आजका पैदा हुआ बच्चा और सौ बरसका बूढ़ा भी समान है। तब जो कालसे डरते हैं उन बुद्धिमानोंको चाहिए कि वे तपरूपी धनुष चढ़ाकर रत्नत्रयमयी बाणों द्वारा कालरूपी शत्रुको पहले ही नष्ट करदें। कुछ लोग यह विचारा करते हैं कि आत्महितके लिए तप धारण तो करना चाहिए, पर वह जवानीमें नहीं, किन्तु बुढ़ापेमें; ऐसे लोग बड़े मूर्ख हैं।