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________________ सुदर्शन-चरित। भोगोंसे तृप्ति होती है, पर वे नहीं जानने कि कामातुर लोग ज्यों ज्यों इन भोगोंको भोगते हैं त्यों त्यों उनकी इच्छा अधिक अधिक बढ़ती ही जाती है-उनसे रंचमात्र भी तृप्ति नहीं होती। यह कामरूपी अग्नि असाध्य है-इसका बुझा देना सहन नहीं। यह सारे शरीरको खाकमें मिलाकर ही छोड़ती है। यह सब अनर्थोंका कारण है। जैसे जैसे इसका सहवास बढ़ता है, यह भी फिर उसी तरह अधिकाधिक बढ़ती जाती है। ये भोग जहरीले सोसे भी सैकडों गुणा अधिक कष्ट देनेवाले हैं। क्योंकि सर्प तो एक जन्ममें एक ही वार प्राणोंको हरते हैं और ये भोग नरक, तिर्यच आदि कुगतियोंमें अनन्त वार प्राणोंको हरते हैं / इन्हें तू नरकोंमें लेजानेवाले. और दोनों जन्मोंको बिगाड़नेवाले महान् शत्रु समझ। उन रोगोंका सह लेना कहीं अच्छा है जो थोड़े दुःखोंके देनेवाले हैं, पर इन भोगोंका भोगना अच्छा नहीं जो जन्म जन्ममें अनन्त दुःखोंके देनेवाले हैं। कारण, रोगोंको शान्तिपूर्वक सहलेनेसे. तो पुराने पाप नष्ट होते हैं और भोगोंको भोगनेसे उल्टे नये पापकर्म बन्ध होते हैं और फिर उनसे दुर्गतिमें दुःख उठाना पड़ता है। जो मूर्ख जन भोगोंको भोगकर अपने लिए सुखकी आशा करते हैं, समझना चाहिए कि वे कालकूट विषको खाकर चिर कालतक जीना चाहते हैं / पर यह उनकी बुद्धिका भ्रम है। जो कामसे पीड़े गये लोग यह समझते हैं कि विषय-भोगोंसे हमें सुख प्राप्त होगा, समझो कि वे शीतलताके लिए जलती हुई आगमें घुसते हैं। जिस प्रकार गौके सींग दुहनेसे कभी दूध नहीं निकलता और सर्पमें अमृत नहीं
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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