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________________ [81 संकटपर विजय। सातवाँ परिच्छेद / संकटपर विजय। स्वदर्शनको आदि लेकर जितने धीरवीर अन्तःकृत केवली हुए-कष्ट सहते सहते मृत्युके अन्तिम समयमें जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष लाभ किया उन मुनिराजोंक में नमस्कार करता हूँ / वे मुझे भी अपने जैसी शक्ति अंदान करें। सुदर्शन अनेक देशों और शहरोंमें विहार करता और सस्तेमें पड़नेवाले तीर्थों की यात्रा करता चला जाता था। धर्ममें उसकी बुद्धि बड़ी दृढ़ होगई थी। वह चलते समय जमीनको देखकर बड़ी सावधानीसे चलता-ऐसे उद्धतपनेसे वह कभी पाँव नहीं धरता, जिससे जीवोंको कष्ट पहुँचे। उसे कभी तो आहार मिल जाता और कभी न भी मिलता / मिलनेपर न वह ख़ुशी मनाता और न मिलनेपर दुखी होता। उसके भावोंमें यह महान् समभावना उत्पन्न होगई थी। वह सदा मन-वचन-कायसे वैराग्य-भावनाका विचार करता रहता। परमार्थ साधनमें उसकी बड़ी तत्परता थी। वह बड़ा ही वीतरागी और निस्पृह महात्मा था। यह सब कुछ होनेपर भी उसकी एक महान् उच्चाकांक्षा थी। वह यह कि-मोक्षके लिए वह बड़ा उत्कण्ठित था। ___सुदर्शन धीरे धीरे पाटलिपुत्र (पटना ) में पहुंचा। वहाँ श्रावकोंके बहुत घर थे। एक दिन वह आहारके लिए निकला।
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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