SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदर्शनकी तपस्या। [ 79 वीचारका ध्यान करना आरंभ किया। यह ध्यान आत्मतत्त्वको प्रकाशित करनेके लिए रत्नमयी दीपकके समान है और कर्मरूपी वनके जलानेको आगके समान है। शुक्लध्यानके शेष रहे तीन पायोंको आगे पूर्ण कर सुदर्शन मोक्षके कारण केवलज्ञानको प्राप्त करेगा / इस ध्यानके द्वारा हृदयमें बड़ा ही अपूर्व आनन्द उत्पन्न होता है और पापकर्मोका क्षणमात्रमें नाश होता है। . यह जिनभगवान्के द्वारा कहा गया और आन्तरिक क्रोध, मान, माया, राग, द्वेष, आदि शत्रुओंकी शक्तिको नाश करनेवाला छह प्रकारका परम अभ्यन्तर तप है / महातपस्वी सुदर्शन इसे कर्मशत्रुओंके नाशार्थ प्रतिदिन धारण करता। इससे उसका अन्तरंग बड़ा ही पवित्र होगया था। मंत्रकी शक्तिसे जैसे सर्प सामर्थ्यहीन हो जाते हैं- काट नहीं सकते और काटे भी तो उनका जहर नहीं चढ़ता, उसी तरह इस तप द्वारा सुदर्शनके कर्म बड़े ही अशक्त होगये थे-अपना कार्य वे कुछ न कर पाते थे। उस तपके प्रभावसे सुदर्शनकी आत्म-शक्ति खूब बढ़ गई, उसे कई ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई, जो कि मोक्ष-मार्गकी सहायक थीं। सुदर्शन संसारके प्राणी मात्रमें मित्रताकी भावना भाता, अपनेसे अधिक गुणधारी मुनियोंमें आनन्द मनाता, रोगादिके कष्टसे दुःख पा रहे जीवोंपर करुणा करता और अपनेसे वैर करनेवाले पापी लोगों में समभाव रखता / इन पवित्र भावनाओंको वह सदा भाता रहता था। इसलिए उसके हृदयमें राग-द्वेषादि दोषोंने स्वप्नमें भी स्थान न पाया। किन्तु उसके निर्मल हृदयमें रत्नमयी दीपकके समान एक प्रकाशमान
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy