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________________ सुदर्शनकी तपस्या। [77 भाँति निश्चल होकर एकान्त स्थानमें नाना प्रकार कायोत्सर्ग करता। पन्द्रह पन्द्रह दिन, महीना महीना वह ध्यानमें खड़ा ही रहता / इस तपके प्रभावसे वह संसार-विषय-भोग-सम्बन्धी सुखोंमें बड़ा ही निर्मोही होगया था। यह तप कर्मोंका जड़मूलसे नाश करनेवाला है। छठा ध्यान नामा तप है / ध्यानके चार भेद हैं। आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, और शुक्लध्यान / इसमें आर्तध्यानके भी चार भेद हैं। पहला अनिष्ट-संयोग नाम आर्तध्यान, अर्थात् जिस वस्तुको मन नहीं चाहता उसके नष्ट होनेका वार वार चिंतन करते रहनावह कब नष्ट होगी / दूसरा इष्ट-वियोग नाम आर्तध्यान, अर्थात् जिसे मन चाहता है उसकी प्राप्तिके लिए चिंतन करते रहना / तीसरा रोगसे होनेवाला आर्तध्यान है। रोग-जनित कष्टका चिन्तन करना, अधीर होना, रोना-धोना आदि / चौथा निदान नाम आर्त्तध्यान है / निदान अर्थात् आगामी विषय-भोगादिककी इच्छाकरना, उसका विचार करना। यह अर्तध्यान बड़ा ही बुरा और पुण्यकर्मका नाश करनेवाला है / सुदर्शनने इसे शुभ ध्यान द्वारा जड़मूलसे नष्ट कर दिया था / इसलिए उसके निर्मल हृदयको इस आर्तध्यानने स्वप्नमें भी न छू-पाया। इसी प्रकार रौद्रध्यानके भी चार भेद हैं। पहला हिंसानन्द-रौद्रध्यान अर्थात् हिंसामें आनन्द मानना। दूसरा मृषानंद-रौद्रध्यान, अर्थात् झूठ बोलनेमें आनन्द मानना। तीसरा स्तेयानन्द-आर्तध्यान, अर्थात् चोरी करने में आनन्द मानना / चौथा परिग्रहानन्द-आर्तध्यान, अर्थात भोगोपभोगकी वस्तुओंकी रक्षाका चिन्तन करना और उसमें आनन्द मानना / इस ध्यानमें सिवा कष्टके सुखका नाम नहीं।
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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