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________________ 76 / सुदर्शन-चरित। पवित्र तपस्वियोंका मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक विनय करता / इस विनय-गुणके प्रभावसे उसे सब विद्यायें सिद्ध होगई थीं, जो संसारके पदार्थोका ज्ञान करानेके लिए दीयेकी भाँति हैं। तीसरा वैयावृत्य-तप है। इसके लिए वह अपनेसे जो तप, ध्यान, योग और गुणोंमें अधिक थे, उनकी बड़े हर्षके साथ जितनी अपनेमें शक्ति होती उसके अनुसार वैयावृत्य करता। जिससे कि उसे भी उनके समान शक्तियाँ प्राप्त हों / इस तपके प्रभावसे उसे बड़ी शक्ति प्राप्त होगई थी। उससे वह कठिनसे कठिन तप करनेमें कभी पीछा पग न देता। उसका रत्नत्रय जो सब सिद्धियोंका देनेवाला है, बड़ा निर्दोष-निर्मल होगया था। ___चौथा स्वाध्याय-तप है। इसके लिए वह अप्रमादी, जितेन्द्री सुदर्शन सदा स्वाध्यायमें लीन रहता था। स्वाध्यायके पाँच भेद हैं, सो वह कभी स्वयं शास्त्रोंका अध्ययन करता, कभी अपनेसे अधिक ज्ञानियोंसे अपनी शंकाओंका समाधान करता, कभी तत्त्वज्ञानका वार वार मनन या चिंतन करता-उसपर विचार करता, कभी पाठको शुद्धताके साथ घोखता और कभी मिथ्या मार्गको दूर करने और सत्यार्थ मार्गको प्रगट करनेके लिए धर्मका पवित्र उपदेश करता / यह पाँचों प्रकारका स्वाध्याय अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाला है / इसे निरंतर करते रहनेसे साधुओंका चित्त स्वप्नमें भी अपने ध्यानसे नहीं डिगता और वैराग्यमें बड़ा ही स्थिर हो जाता है। पाँचवा व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग-तप है / इसके लिए वह काठकी
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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