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________________ सुदर्शनकी तपस्या / [ 75 गरमीके मारे तपकर आगसे लाल हो जाते, सारे शरीरसे पसीना निकलने लगता, उसपर हवासे उड़ी धूल आ-आकर चारों ओरसे गिरती, प्यासके मारे गला सूखने लगता, और हृदय छट-पटाने लगताजहाँपर एक मिनटके लिए ठहरनेकी किसीकी हिम्मत न पड़ती, वहाँ सुदर्शनसा धीरवीर महात्मा महीनों बिता देता और कष्टोंकी कुछ परवा न करता-बड़ी शान्तिके साथ उन्हें सहता / यह कायक्लेश-तप बड़ा ही दुःसह है, पर सुदर्शनमुनिका ध्येय था अनन्त सुख-मोक्षकी प्राप्ति और पापोंका नाश / इसलिए वह इन सबको बड़ी धीरताके साथ सह लेता था। यह हुआ छह प्रकारका बाह्य तप और इसी तरह छह ही प्रकारका अभ्यन्तर तप है। अभ्यन्तर तप जिस लिए किया जाता है वह कारण योगियोंको प्रत्यक्ष है। यह तप बड़ा दुःसह है, जिनका हृदय डरपोक है, वे इसे धारण नहीं कर सकते। यह कर्मरूपी वनको जलानेके लिए दावानलके समान है। योगी लोग कम-शत्रुओंकी शान्तिके लिए इसे धारण करना अपना कर्तव्य समझते हैं। ___ साधु लोग यद्यपि बड़ी सावधानी रखते हैं कि उनसे कोई प्रकार प्रमाद न बन जाय / तथापि यदि दैवी-घटनासे उनके व्रतोंमें कोई दोष लग जाय, तो उनकी शुद्धिके लिए वे प्रायश्चित्त लेते हैं। प्रायश्चित्तसे उनके सब व्रत-आचारण निर्दोष होकर परम शुद्ध हो जाते हैं / यह पहला प्रायश्चित-तप है। दूसरा विनय-तप है / उसके लिए वह सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप और इनके धारण करनेवाले
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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