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________________ wwwwwwwwwww 74 ] सुदर्शन-चरित। wwwwwww ४-रसपरित्याग-तपके लिए वह कभी केवल एक ही अन्न . खाकर रह जाता, कभी कोई रस छोड़ देता और कभी कोई / जिससे विकार न बढ़े-इन्द्रियोंकी विषय-लालसा नष्ट हो, ऐसा आहार वह सदा करता था। ५-विविक्तशय्यासन-तपके लिए वह कभी सूने घरों में, कभी गुफाओंमें, कभी वनोंमें, कभी मसानोंमें और कभी पर्वतोंमें रहता, जहाँ कोई न होता-जो निर्जन-एकान्त स्थान होते / और कभी ऐसे भयंकर स्थानोंमें, जहाँ सिंह, व्याघ्र, रीछ, चीते, गेड़े आदि हिंसक जीव रहते, सिंहकी तरह निर्भय-निडर होकर रहता। उसका लक्ष्य था 'ध्यानसिद्धि' और उसीके लिए वह सब कुछ करता और सहता था। ६-कायक्लेश तपके लिए वह वर्षा समय वृक्षोंके नीचे ध्यान करता। ऊपर मूसलधार पानी वरस रहा है, बड़ी प्रचंड हवा बह रही है और वृक्ष विषेले साप, बिच्छू आदि जीवोंसे युक्त हो रहे हैं। ऐसी भयंकर जगहमें जहाँ अच्छासे अच्छा हिम्मत-बहादुर भी एक क्षण नहीं रह सकता, वहाँ वह महीनों एकासनसे गुजार देता। शीतके दिनोंमें जब कड़कड़ाट ठंड पड़ती, वृक्ष झुलस जाते, शरीर थरथर काँपने लगता, उस समय वह शरीरसे सब मायाममता छोड़कर नंगे-शरीर काठकी भाँति खड़ा होकर ध्यान करता। सो वह भी खुले मैदानमें या नदी अथवा तालाब आदिके किनारोंपर। गर्मीके दिनोंमें जब खूब गरमी पड़ती, पर्वतोंके ऊँचे शिखर उस
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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