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________________ 70 ] सुदर्शन-चरित। ___ चार विकथा और पन्द्रह प्रमाद ये भी पाप-बंधके कारण हैं। आत्म-कल्याणकी कामना करनेवालोंको ध्यान, अध्ययन आदि द्वारा इनके नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए / क्योंकि प्रमादी पुरुषोंके कर्मोंका आस्रव सदा ही आता रहता है। उनके दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि नष्ट होकर संसार बढ़ने लग जाता है। मोक्षका सुख चाहनेवालोंको कषायों पर विजय करना चाहिए / क्योंकि ये कर्मोकी स्थितिको बढ़ाती हैं। और इन कषायोंके आवेशमें जब क्रोध आता है तब उस क्रोधी मनुष्यका तप-जप, ध्यान-ज्ञान, आचार-विचार, क्रिया-चारित्र आदि सभी नष्ट होकर दुःख, विपत्ति, संसार-स्थिति आदि खूब बढ़ जाते हैं। यह जानकर बुद्धिमानोंको उत्तम-क्षमा आदि दस धर्मरूपी धनुषबाण द्वारा इन दुष्ट कषायरूपी शत्रुओंको नष्ट कर देना चाहिए / तभी वे सुख प्राप्त करनेके अधिकारी बन सकेंगे। मन-वचन-कायके कर्म-व्यापारको योग कहते हैं। इसके पन्द्रह भेद हैं / ये योग शुभ-पुण्यबन्ध और अशुभ-पापबंधके कारण हैं / इन तीनों ही प्रकारके योगोंको रोकना चाहिए / सत्यमनोयोग और अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग ये चार योग शुभबंधके कारण हैं और असत्यमनोयोग तथा उभयमनोयोग, और असत्यवचनयोग तथा उभयवचनयोग ये चार योग पापबंधके कारण हैं। अशुभ मनोयोगवालेके सदा कर्मोका आस्रव आता रहता है। इसलिए बुद्धिमानोंको शुभ ध्यान द्वारा इस अशुभ योगके छोड़नेका यत्न करना चाहिए। और अशुभ
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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