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________________ सुदर्शन-चरित। उन अर्हन्त भगवान्को, जो संसारके बुद्धिमानों द्वारा पूज्य और इन्द्रिय तथा मोक्ष सुखके देनेवाले हैं, उन सिद्धभावान्को, जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि आठ गुणोंके धारक और शरीररहित हैं, उन आचार्यको, जो सदा पंत्राचारके पालनेमें तत्पर रहते हैं, उन उपाध्यायको, जो पठन-पाठनमें लगे रहते हैं और उन साधुको, जो निस्पृही और परम वीतरागी हैं, मैं नमस्कार करता हूँ। वे मुझे अपने अपने गुण प्रदान करें। छठा परिच्छेद। सुदर्शनकी तपस्या। जिन्हें इन्द्र, धरणेन्द्र, और चक्रवर्ती आदि संसारके महापुरुष पूजते हैं, और जो संसार-समुद्रमें बहते हुए अतएव अवलम्बन रहित-निराधार प्राणियोंको सहारा देकर पार करते हैं-सब सुखोंको देते हैं, उन पाँचों परमेष्ठियोंको मैं श्रद्धा पूर्वक नमस्कार करता हूँ। विमलवाहन मुनिराजके द्वारा अपने और मनोरमाके भवोंको सुनकर सुदर्शन संसार-भ्रमणके कारणपर यों विचार करने लगा संसार बड़ा ही दुर्गम है, महा भयानक है / इसमें सुखका नाम भी नहीं; किन्तु यह उल्टा अनन्त दुःखोंसे परिपूर्ण है। तत्र सत्पुरुष इससे कैसे प्रेम कर सकते हैं। पाप-कर्मरूपी सॉकलसे बँधे और विषयरूपी शत्रुओंसे ठगे गये प्राणी धर्म-कर्म रहित हो अनादि कालसे इसमें घूमते-फिरते हैं, पर अबतक वे इसके पार न हुए।
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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