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________________ सुदर्शन और मनोरमाके भव / 59 " णमो अरहंताणं " इस मंत्रको एक वार याद कर लिया करना / इस महामंत्रमें अर्हन्त भगवान्को नमस्कार किया है। इससे तू जो चाहेगा वही तुझे प्राप्त होगा।" इस प्रकार उस ग्वालको समझा कर और उसपर उसका विश्वास हो-प्रेम हो, इसके लिए आप स्वयं भी " णमो अरंहताणं " कहकर वे आकाशमें गमन कर गये। उन्हें आकाशमें जाते देखकर उसने समझा मुनिराज इसी मंत्रके प्रभावसे आकाशमें चले गये / मंत्रके इस साक्षात् फलको देखकर वह बड़ा खुश हुआ। उसने तब मनमें विचारा-अहा, जैसे ये मुनिराज इस महामंत्रके उच्चारण मात्रसे ही आकाशमें चले गये वैसे मैं भी तब इस मंत्रकी शक्तिसे आकाशमें उड़ सकूँगा। इस विचारने उसके कोमल-सरल हृदयमें मंत्र जपनेकी पवित्र श्रद्धाको खूब ही बढ़ा दिया। इसके बाद यह इस मंत्रका ध्यान करता हुआ अपने घर पहुंचा। भबसे वह जो कुछ भी काम करता उसके पहले इस मंत्रका स्मरण कर लिया करता था। इस प्रकार मंत्रका स्मरण करते देखकर एक दिन उसके मालिक वृषभदासने उससे पूछा-क्यारे, तू जो रोज रोज ' णमो अरहंताणं ' इस मंत्रका स्मरण किया करता है, इसका क्या कारण है ? ग्वालने तब मुनिराजकी शीत बाधाका दूर करना और उनके द्वारा अपनेको मंत्र-लाभ होना आदि, सब बातें आदिसे इतिपर्यन्त सेठको सुना दीं। सुनकर सेठ बड़े खुश हुए और उन्होंने उसकी प्रशंसा कर कहा-भाई, तू धन्य है। तेरा यह धर्म-प्रेम देखकर मुझे बड़ी खुशी हुई। इस मंत्र-लाभसे तेरा जन्म सफल होगया। इस मंत्रके जपनेसे तू दोनों लोकमें सुख लाभ
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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