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________________ 52 ] सुदर्शन-चरित। संसारका आताप मिटानेवाला है और सबको प्रिय है / वृक्ष परिग्रहफलोंका त्याग करता है और क्यारीमें आये दान-पानीकी अपनी वृद्धिके लिए रक्षा करता है और धर्म-कल्पवृक्ष परिग्रह-धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चाँदी आदिका त्याग करता है और आहार, औषधि, अभय और ज्ञान इन चार प्रकारके दानोंकी रक्षा करता है-इन दानोंको देता है / इसलिए वह तबतक बढ़ता ही जाता है जबतक कि मोक्ष न प्राप्त हो जाय / वृक्ष ऋतुका सम्बन्ध पाकर फलते हैं और उन फलोंको लोगोंको देते हैं; और धर्म-कल्पवृक्ष आकिंचन्य-परिग्रह-रहितपनारूप ऋतुका सम्बन्ध पाकर निर्ममत्व-भावसे लोगोंको स्वर्ग-मोक्षका फल देता है। वृक्ष अपने स्थूल शरीरसे बढ़कर परिपूर्णता लाभ करता है और मनचाहे सुन्दर फलोंको देता है और धर्म-कल्पवृक्ष ब्रह्मचर्यरूपी तेजस्वी शरीरसे बड़ा होकर परिपूर्णता लाभ करता है और धर्मात्माओंको सर्वार्थसिद्धि आदिका सुख देता है / सुदर्शन, इस प्रकार उत्तम-क्षमादि दसलक्षणमय धर्म-कल्पवृक्षका तुझे मोक्षरूपी फलकी प्राप्तिके लिए सेवन करना चाहिए / यह मोह संसारके जीवोंको महान् कष्ट देनेवाला है। इसलिए वैराग्य-खड्गसे इसे मारकर पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और मुनियोंके मूलगुण तथा उत्तरगुण, इसके सिवा रत्नत्रय आदिक तप, जो धर्मके मूल हैं, इन सबको तू धारण कर / यह यतिधर्म महान् सुखका कारण है।
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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