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________________ सुदर्शनका धर्म-श्रवण। [ 5.1 जैसे वृक्षका मूल भाग होता है वैसे इस धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल है क्रोधादिसे नष्ट न होनेवाली पृथ्वी समान श्रेष्ठ क्षमा। वृक्ष पानीसे सींचा जाता है और यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष उत्तम-मार्दवरूपी अमृत-भरे घड़ोंसे, जो सारे जगत्को सन्तुष करते हैं, सींचा जाकर प्रति दिन बढ़ता है / वृक्षके चारों ओर चबूतरा बना दिया जाता है, इस लिए कि वह हवा वगैरहके धक्कोंसे न गिरे-पड़े और यह धर्मरूपी वृक्ष उत्तम-आर्जवरूपी सुदृढ़ चबूतरेसे युक्त है। इसलिए इसे माया-प्रपंचकी प्रचण्ड वायु तोड़-मोड़ नहीं सकती-यह सदा एकसा स्थिर बना रहता है / वृक्षके स्कन्ध होता है और यह धर्म-कल्पवृक्ष सत्यरूपी स्कन्धवाला है, जिसे सब पसन्द करते हैं / और इसी कारण यह असत्यरूपी कुठारसे काटा न जाकर बड़ा मजबूत हो जाता है। वृक्षके डालियाँ होती हैं और उनसे वह बहुत विस्तृत हो जाता है, और यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष . निर्लोभतारूर डालियोंसे शोभित है; और इसी लिए फिर इसका लोभरूपी भील आश्रय नहीं ले पाते-यह चारों ओर खूब बढ़ जाता है / वृक्ष, पत्तोंसे युक्त होकर लोगोंके गर्मीका कष्ट दूर करता है और यह धर्म-कल्पवृक्ष दो प्रकार संयमरूप पत्तोंसे, जो .सत्पुरुषोंका संसार-ताप मिटाते हैं, युक्त है। इसे असंयमरूपी वायुका वेग कुछ हानि नहीं पहुंचा सकता / यह सदा सघन और शीतलता लिये रहता है / वृक्ष फूलोंसे युक्त होता है और यह धर्मकल्पवृक्ष बारह प्रकार तपरूपी सुगन्धित फूलोंसे शोमित है।
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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