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________________ सुदर्शनका निर्वाण-गमन / [ 105 मोक्षको गये और जायँगे वे इसी दो प्रकारके रत्नत्रय द्वारा / इसे छोड़कर मोक्ष जानेका और कोई मार्ग नहीं है / यह जानकर बुद्धिमानोंको इस इन्द्रियोंके स्वामी मोह-शत्रुका नाश कर आत्महितके लिए दो प्रकारका रत्नत्रय धारण करना चाहिए। इस प्रकार सुदर्शन केवलीके मुख-चन्द्रमासे झरे धर्मामृतको पीकर देव और नर बहुत सन्तुष्ट हुए। उस समय कितने ही भव्यजनोंको मोक्ष-मार्गका स्वरूप जानकर वैराग्य होगया। उन्होंने मोहका नाश कर पवित्र जिनदीक्षा ग्रहण करली। कितनोंने भगवान्के द्वारा धर्मका स्वरूप सुनकर धर्मसिद्धि और मोक्षके लिए अणुव्रत आदि व्रतोंको धारण किया। कितनी विकिनी स्त्रियोंने उपचार-महाव्रत ग्रहण किया / कितनीने श्राविकाओंके व्रत लिये / कितने पशुओंने भी भगवान्के द्वारा बोधको प्राप्त होकर धर्म प्राप्तिके लिए काललब्धिके अनुसार अपने योग्य व्रतोंको ग्रहण किया / कुछ देवों, कुछ मनुष्यों, कुछ देवियों और कुछ स्त्रियोंने चन्द्रमाके समान निर्मल सम्यक्त्वको ही धारण किया / उस व्यन्तरीने भी भगवान्के मुखसे धर्मरसायनका पान कर हलाहल विषके समान मिथ्यात्वको मन-वचन-कायसे छोड़ दिया। अपनी आत्माकी बड़ी निन्दा कर उसने भगवान्के चरणोंको नमस्कार कर मोक्ष प्राप्तिके अर्थ मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक सम्यग्दर्शन ग्रहण किया / और जो वह अभयमतीकी धाय तथा वेश्या थी उन सबने सुदर्शन केवलीके मुँहसे धर्मका उपदेश सुनकर अपने पापकर्मपर बड़ा दुःख प्रगट किया-अपनी उन्होंने बड़ी निन्दा की
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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