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________________ सुदर्शनका निर्वाण-गमन / [101 वह सर्वथा निष्पाप है, परमोत्कृष्ट है, साररूप है और सुखका ससुद्र है। सम्यग्दर्शनके साथ सप्त व्यसनका त्याग, आठ मूलगुणोंका धारण, बारह व्रतोंका पालन और ग्यारह प्रतिमाओंका ग्रहण, यह सब श्रावकधर्म है। श्रावकधर्म एक देशरूप होता है। एकदेशका मतलब यह है कि जैसे ब्रह्मचर्यव्रत दोनों ही धर्मोमें धारण किया जाता है। गृहस्थधर्मका पालन करनेवाला अपनी स्त्रीके साथ संबन्ध कर सकता है, पर मुनिधर्मका पालक स्त्री मात्रका त्यागी होता है। इसी प्रकार अहिंसावत सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, परिग्रह-परिमाणवत आदिमें समझना चाहिए। इसके सिवा मुनिधर्ममें और भी कई विशेषताये हैं। उक्त बातोंके सिवा श्रावकधर्मकी और भी कई बातें हैं / और वे श्रावकोंके लिए आवश्यक हैं। जैसे अपनी आयुष्यके बढ़ानेवाली जिनभगवान्की पूजा करना, निग्रन्थ गुरुओंकी भक्ति पूर्वक उपासना-सेवा करना, जैनशास्त्रोंका स्वाध्याय करना, व्रत-संयमका पालना, बारह प्रकार तप धारण करना और आहारदान, औषधिदान अभयदान तथा ज्ञानदान इन चार दानोंका देना / ये छह ग्रहस्थोंके नित्यकर्म कहलाते हैं / इस श्रावक धर्मको जो सम्यदर्शन सहित पालन करते हैं वे सर्वार्थसिद्धिका सुख लाभ कर क्रमसे मोक्ष जाते हैं। ___ मुनिधर्म महान् धर्म है। इसमें तेरह प्रकार चारित्र, अट्ठाईस मूलगुण, चौरासी लाख उत्तरगुण और बारह प्रकार तप धारण
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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