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________________ सुदर्शनका निर्वाण-गमन / करना शुरू किया। इस ध्यानके बलसे परमानन्द स्वरूप सुदर्शनके बहुतसी कर्म-प्रकृतियोंके साथ साथ मोहनीय कर्मका नाश हो गया। इस प्रकार मोहशत्रु पर जयलाभ कर इनने शीलरूपी कवच द्वारा अपने आत्माको ढका और गुणसेनाको लिये ये चारित्ररूपी रण-भूमिमें उतरे / यहाँ ये उपशमरूपी हाथीपर चढ़कर ध्यानरूपी खड्गको हाथमें लिये कर्मशत्रुओं पर विजय करनेके लिए एक वीर' योद्धासे शोभने लगे / यहाँ इनने बड़ी शीघ्रताके साथ उछल करपरिणामोंको उन्नत कर एक ऐसी छलाँग मारी कि देखते देखते अत्यन्त दुर्लभ और केवलज्ञानके कारण क्षीणकषाय नामके गुणस्थानको प्राप्त कर लिया। फिर शेष बचे एक योगके द्वारा शुद्ध हृदयसे दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितर्क-अविचारका, जो मणिमय दीपककी तरह प्रकाश करनेवाला है, इनने ध्यान किया। इस ध्यानके बलसे बाकी बचे तीन घातिया कर्मोंका भी इन्होंने नाश कर दिया। जैसे राजा अपने शत्रुओंको नष्ट कर देता है। इस प्रकार त्रेसठ कर्मप्रकृतियोंका नाश कर सुदर्शनने आत्मशत्रुओं पर विजय-लाभ किया / इसी समय इस अपूर्व विजय-लाभसे लोकालोकका प्रकाशक, जगत्पूज्य और मुक्ति-सुन्दरीके मुख देखनेको काच जैसा केवलज्ञान इन्हें प्राप्त होगया। इसीके साथ इन्हें नौ केवललब्धियाँ प्राप्त हुई। वे ये हैं अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तदान, धर्मोपदेश कृत अनन्तलाभ, पुण्यसे होनेवाला पुष्पवृष्टि आदि रूप अनन्तभोगसमवशरण सिंहासनादिरूप अनन्तउपभोग, जिसकी शक्तिका पार नहीं ऐसा अनन्तवीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व और चन्द्रमाके समान निर्मल यथाख्यातचारित्र /
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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