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________________ सुदर्शनका निर्वाण-गमन / [95 किया था वही अपने आसनके कम्पित होनेसे सुदर्शनपर फिर उपसर्ग हुआ जानकर उसी समय वहाँ आया। सुदर्शनकी उसने तीन प्रदक्षिणा दी, पूजा की और उन्हें नमस्कार कर वह उस व्यन्तरीसे बोला-देवी, तुझे इन महा मुनिपर उपसर्ग करना उचित नहीं / वह धर्मका नाश करनेवाला, पापका खान, निंदनीय और नरकोंमें लेजानेवाला है। जो पापी लोग इन मुनियोंकी निन्दा करते हैं, वे नरकादि दुर्गतिमें भव भवमें निन्दाके पात्र होते हैं / जो मूर्ख इन निस्पृह महात्माओंको कष्ट देते हैं-दुःख पहुँचाते हैं वे दुर्गतियोंमें महान् दुःख उठाते हैं। और जो इनका मन-वचन-शरीरसे थोड़ा भी बुरा चिंतन करते हैं वे पग-पगपर हजारों दुखोंको भोगते हैं। देवी, यह सब जानकर तुझे इन महात्माके साथ शत्रुता करना उचित नहीं। तू इनकी भक्ति कर, इनके हाथ जोड़ जिससे तेरा कल्याण हो। कारण जो योगियोंकी भक्ति करते हैं वे उस पुण्यके उदयसे सब जगह सौभाग्य, सुख-सम्पत्ति प्राप्त करते हैं। जो मुनियोंके चरण-कमलोंमें अपना मस्तक नवाते हैं उन्हें फिर इन्द्रादि देवतक पूजते हैं-नमस्कार करते हैं। और जो भव्यजन ऐसे योगियोंके चरगोंकी पूजा करते हैं वे सारे संसार द्वारा पूज्य होते हैं। इत्यादि गुण-दोष, हानि-लाभ विचार कर तुझे उचित है कि इनके साथ ईर्षा भाव छोड़कर तू अपने कल्याणके लिए इनकी भक्ति करे / यक्षने व्यन्तरीको इस प्रकार बहुत समझाया, पर इससे उसको रंचमात्र भी शान्ति न हुई। किन्तु उसने उल्टी लाल आख कर उस यक्षको घुड़की बताना चाहा / उसकी यह दशा देख यक्षने सोचा-दुष्टोंको दिया धर्मोपदेश
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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