________________ तित्थयरेहि वि न कयं, एकमयं तिहुयणं सुयधरेहि। अम्हारिसेहि किं पुण, कीरइ रह मन्द बुद्धीहिं // 15 // पउम चरिय भाग-१. पे-२ जब श्रुतधर तीर्थंकर भी तीनों लोकों को एक मत नहीं कर सके, तब हमारे जैसे मन्द बुद्धि तो इसमें क्या कर सकते है ? 'सर्वज्ञ परमात्मानी एवी आज्ञा छे के धर्म क्रियाना भेदोमां मुंझावू नहीं अने जे - जे क्रियाथी अहिंसादि गुणोनी उन्नति थाय तथा अन्तरात्मदशा पूर्वक परमात्म पद प्रगटे एवी सर्व धर्म क्रियाना भेदोमां सत्यता छे. अने ते अधिकारी भेदे करवी जोइए।" -श्री आत्मानंद प्रकाश वर्ष 61 अंक 8/10 - 6/64 ललित विस्तरा में वैयावच्चगराणं की व्याख्या में वृद्ध सम्प्रदायः शब्द का प्रयोग किया है और अंत में हितशिक्षा रूप में जो वर्णन दिया उसमें यथोचितं करोति कुर्वन्ति वा कुग्रहविरहेणं' शब्द का प्रयोग है। जो सम्यक् प्रकार से चिन्तनीय है। “पूजनीया मन्त्रदेवताः" की व्याख्या में भी मंत्र देवों की यथा योग्य पूजा करो” इसमें भी यथा योग्य शब्द पर चिन्तन आवश्यक है। देवसिकावश्यकमध्ये सामान्यतो वैयावृत्यकरान् विमुच्य केवलश्रुतदेवतादेः कायोत्सर्गकरणं। देवसिक आवश्यक में सामान्य से वैयावच्चगराणं बोलकर काउस्सग्ग किया जाता है। उसे छोडकर केवल श्रुतदेवता का काउस्सग्ग करना / चैत्यवंदन भाष्य पे-३९५ क्या इस प्रकार कोइ क्रिया करता है ? चिंतनीय है.... Himkan 0866-2567927