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पास पिता प्रदत्त और स्वार्जित प्रचुर धन हैं। परंतु वह जात की वेश्या थी। उस पर अश्रद्धा करके अपनी पुत्री से कहा “तू तेरे पति को धन कहाँ से आता है, पूछकर मुझे कहना । मुझे कौतुक है?" पुत्री ने कहा माता ! इस प्रश्न से हम को क्या लाभ? क्योंकि वे सभी सुविधाएँ पूर्ण कर रहे हैं।" तब क्रूद्ध होकर उसने कहा “रे दुष्टा! कुक्षी में धारणकर तुझे बड़ी की
और तू मेरा इतना सा कौतुक भी पूर्ण नहीं कर रही?'' तब सरल रतिसुंदरी ने दाक्षिण्यता से कहा "माते ! मेरे पति गुप्तगृह में देवपूजा के समय जाते हैं। पूजाकर बहुत रत्न लाकर मुझे देते हैं। कुछ रत्न वे रखते हैं । उस गुप्तगृह की चाबी मुझे देते हैं । मैं उसे संभालकर रखती हूँ । इससे अधिक मैं नहीं जानती।" रतिमाला ने कहा "मुझे वह दिखा । पुत्री ने कहा'' मैं जीवित हूँ तब तक तो यह नहीं होगा ।'' "तो चाबी मुझे दे।" पुत्री ने कहा "मेरे जीते जी तेरा मनोरथ पूर्ण नहीं होगा । माँ तू नाराज हो या खुश, पति का विश्वास भंग मैं नहीं करूँगी क्योंकि मेरे प्राण पति को समर्पित हैं।" माया में प्रवीण रतिमाला उसका निश्चय जानकर गयी । फिर एकबार उसे भोजन में चन्द्रहास मदिरा पिलाकर बेहोश कर दिया, और चाबी लेकर औषधि ले ली । फिर चाबी जहां थी वहाँ लगा दी । रतिसुंदरी के जागने पर, शरीर पर चाबी को यथास्थान देखकर निःशंक रही । प्रात: जयानंदकुमार ने देवपूजा करके पूजने हेतु
औषधि देखी, पर न मिली । पत्नी को पूछा उसने भी चकित होकर माता का सब वृत्तांत कहा और कहा कि मुझे भी माता पर शंका है । फिर जयानंदकुमार ने रतिमाला से पूछा तो उसने कहा "मैंने कभी चोरी की नहीं, और चोरी का नाम भी मैं नहीं जानती । हाँ अगर शंका है, तो तेरी पत्नी से पूछ ! कुमार ने सोचा धिक्कार है इसको जो अपनी पुत्री पर सारा दोष डाल रही है । यह कुबुद्धि औषधि को उपाय के बिना नहीं देगी। अतः किसी उपाय से उस रत्नदा औषधि को लेकर इसे सजा दूंगा। ऐसा विचारकर कहा" "माता ! अन्यत्र औषधि देखूगा ।'' जयानंदकुमार ने