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के दर्शन हुए। 'हे सुभग! तेरा क्या स्वागत करे? तुझे कुलादिक का प्रश्न करना भी ठीक नहीं । क्योंकि देवी वचन विपरीत नहीं होता । जिस नगर को तूने जन्म से पवित्र किया है 'वह कौन सा नगर है, सत्य कहना।' तब कुमार ने कहा "राजन् ! विजय पुर का मैं निवासी देश देखने की इच्छा से घूमता हुआ इस नगरमें आया हूँ। फिर राजा ने उसके साथ भोजन किया । अवसर पाकर राजा ने कहा "मेरी इस कन्या को ग्रहण कर।" उसने कहा "अज्ञातकुल वाले को कन्या कैसे दी जाय?" राजा ने कहा "देवी के वचन से तेरे गुण, प्रकृति आकृति से तेरे कुल को पहचान लिया है। अतः प्रार्थना का भंग करना उचित नहीं है।" ऐसा सुनकर जयानंदकुमार मौन रहा। तब राजा ने शुभलग्न में रतिसुंदरी का उसके साथ विवाह किया । राजा गज-अश्व-रत्नादि देने लगा । पर उसने न लिये । तब राजा ने राज्य के लिए आग्रह किया । राजा के अत्याग्रह से आठ नगर ले लिये। वे भी अपनी पत्नी को दे दिये । पत्नी ने अपनी माता को दे दिये । अब जयानंदकुमार राजा के दिये हुए प्रासाद में नवोढ़ा के साथ पांच प्रकार के विषयों में आमोद प्रमोद पूर्वक वापी वनादि में क्रीड़ा करते हुए समय व्यतीत कर रहा था । प्रतिदिन पूजा पाठ करके ही भोजन करता था। अपनी पेटी में रही औषधि से पांचसौ रत्न प्रतिदिन प्राप्त करता था। पेटी की चाबी पत्नी को दे देता था । यथेष्ठ दानादि से वह पूरे नगर में प्रिय बन गया था। पत्नी भी पति पर पूर्ण भक्ति से रहती थी। रतिमाला कभी-कभी पुत्री के पास आती थी । और आठ नगर का आया द्रव्य पुत्री को दे देती थी । जामाता पर भी बहुत प्रमोद भाव रखती थी।
कुछ समय व्यतीत हुआ । रतिमाला सोचने लगी यह जामाता राजा का दिया धन नहीं लेता, स्वयं धनार्जन नहीं करता, अष्टनगर की आय भी नहीं लेता, और इतना दानादि में व्यय करता है तो धनार्जन का क्या मार्ग ? एकबार रतिमाला के पूछने पर जयानंदकुमार ने कहा "मेरे