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को पल्यंक पर बैठकर वह मलयकूट गया । वहाँ पल्यंक एक स्थान पर छिपाकर, साधक को मिला। साधक से, कहा “अब तुम साधना करो । मेरे रक्षक होते हुए तुम्हें कोई भय नहीं होगा ।" वह कुमार के साहस की प्रशंसाकर विधिपूर्वक साधना करने लगा ।
तीसरे दिन चतुर्दशी को रात्री में पूर्वदिशा में घोर अंधकार सहित धुएं को देखा । कुमार ने धैर्यपूर्वक देवी अर्पित औषधि के द्वारा और नमस्कार जाप के द्वारा उसे दूर कर दिया । फिर क्षणभर में धूम्रअग्नि को देखा, तो पूर्व रीति से उसे भी दूर कर दिया । फिर कुमार ने भीषण अट्टहास सुना। उससे भी कुमार क्षुभित न हुआ। आकाशवाणी हुई कि 'पहले साधक का भक्षण करूँ या उत्तर साधक का? तब जय ने कहा-"पाषाणों को खा । हम दोनों तेरे वश में नहीं आयेंगे । मृग सिंह को कैसे खायगा? सिंहरक्षित मृग को भी कैसे खा सकेगा? मैं तो शक्र को भी जीत लूंगा। तो तुझे जीतने की क्या बात?" तब पुनः आकाशवाणी हुई "मूर्ख ! दूसरे के लिए क्यों मर रहा है क्या तुने नहीं सुना? देवता कभी भी मानवों से जीते नहीं जाते ।" इसलिए तू दूर हो जा तू निरपराधी है, तुझको नहीं मारूँगा । परंतु अपराधी साधक को तो अवश्य मारूँगा। यह मेरे पर्वत पर विविध औषधि लेने की इच्छावाला विद्यासाधना के समय मेरी अर्चना नहीं करता है, इसलिए इसे मारूँगा ।'' कुमार ने हँसकर कहा, "तू अगर वीर है तो अदृश्य क्यों है ? प्रकट हो । तेरी वीरता तो मैं भी जानूं।" इस प्रकार जय की तर्जना से वह देव क्रोध से सुअर रूप में प्रकट हुआ । कुमार ने भी उसको पृथ्वी पर गिरते देखकर देवी प्रदत्त औषधि के बल से सुअर होकर युद्ध के लिए गया । दोनों घोर आवाज करते हुए एक दूसरे से भीड़ गये । देव कष्ट से रोता हुआ भाग गया । फिर गज रूप में आया, तब कुमार ने गज रूप से उसके दांत तोड़ दिये। सूंड तोड़ दी। गज भी थककर भागा । सिंह रूप से आया तब कुमार ने