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"भद्रदत्त नाम के मेरे गुरु गंगा किनारे रहते थे । उनका मैं गंगदत्त नाम का शिष्य हूँ । गुरु ने औषधिकल्प दिया। उस कल्प से मैं औषधियों को पहचान लेता हूँ । मलयकूट पर अनेक औषधियाँ हैं। वे विधिपूर्वक साधना करने पर सम्यक्प्रकार से जानी जाती हैं। इसलिए वहाँ जाकर एकबार साधना प्रारंभ की, परंतु उस पर्वत का स्वामी क्षेत्रपाल मलयमाल उपसर्ग करके मुझे डराता है । इसलिए साधने में समर्थ नहीं हो रहा हूँ । गुरु आम्नाय से पादलेप से पृथ्वीपर घूमता हूँ। आज इस वन में असंभव स्वर्णमंदिर देखकर, तापसों से पूछने पर, आपका लोकोत्तर स्वरूप जाना । देवों से भी अजेय तुम को जानकर सर्वार्थसिद्धि की याचना के लिए आया हूँ। कहा है-महान पुरुषों से की गयी याचना लज्जा का कारण नहीं होती । इसलिए हे भद्र! अगर क्षेत्रपाल को जीतने में समर्थ हो तो
औषधि सिद्ध करने में विघ्नह र उत्तर साधक बनो!'' तब विश्वोपकारक कुमार ने कहा 'शक्र को भी जीतकर तेरा कार्य सिद्ध करूँगा ।' उसने कहा “अच्छा तुझसे सब संभव है। परंतु वह पर्वतराज यहाँ से सौ योजन दूर है। साधना कृष्णपक्ष की द्वादशी से तीन दिन की है। निर्विघ्नता होगी तो चतुदर्शी को सिद्ध होगी । आज अष्टमी है, इसलिए हे सन्मतिवान् ! तैयार हो जा । मैं प्रातः तुझे स्कंध पर बैठाकर तीन दिन में वहाँ पहुँचाऊंगा ।" तब कुमार ने स्मितकर के कहा "तुम जाओ । अपना काम करो । द्वादशी को सूर्योदय के पूर्व मैं अपनी शक्ति से आ जाऊँगा । इसमें संशय मत रखना । सत्पुरुष का वचन मेरु के समान अचल रहेगा ।" ऐसा सुनकर, वह परिव्राजक कुमार को मिलने का स्थान बताकर आकाशमार्ग से गया। फिर जयानंदकुमार ने अपनी पत्नी से कहा "मलयकूट पर्वत पर जाकर आऊँगा । परोपकार का पुण्यांश तुझे भी मिलेगा । इसलिए पिता के पास तुम रहना । फिर एकादशी की रात