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था । एकबार मुझे संदेह हुआ, इसका शौचमय धर्म सत्य ? या मलमय - जैन धर्म सत्य ? इस शंका के अतिचार से समकित को मलिनकर शनै- शनैः विराधनाकर मैं बहुत देवियों के परिवारवाली क्रूर कर्म विधायिनी महाऋद्धिवाली, गिरिनायिका गिरिमालिनी नाम से मिथ्यादशा में अग्र देवी बनी । कहा है :
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'आम्र और नीम के मूल दोनों मिल जायँ तो आम्र | नीम का गुण ले लेता है । '
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अब तेरे वचनों से मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान जाकर समकित सहित मति - श्रुत- अवधिज्ञान प्रकट हो गये हैं । मेरा पूर्वभव तुझे सुनाकर तुमको मैंने गुरु रूप में स्वीकार किया है । अब मैं निरपराधी प्राणी को नहीं मारूँगी । परंतु पूर्वका पाप कैसे खतम हो, उसका उपाय | तुम बताओ । कुमार ने कहा " देवता तप तो नहीं कर सकते । इसलिए अरिहंत के चैत्यों में पूजा प्रभावना, संघ को धर्म में सहायक बनना, आशातना करनेवालों को दूर करना, ऐसे कार्य करने से तेरे पूर्व के पाप खतम हो सकते हैं । देवी ने स्वीकार किया । फिर देवी ने कहा "तुझे कहाँ पहुँचाऊँ ?" जयानंदकुमार ने कहा- मुझे हेमपुर में रख दे ।" उसने अपने गुरु को विपत्ति निवारण औषधि, दिव्यालंकार और वस्त्र दिये । देवी प्रणामकर चली गयी । वह औषधि और दिव्य वस्त्राभूषण पहनकर नगर में प्रविष्ट हुआ । उसकी लक्ष्मी को देखकर जनता मोहित हुई । घूमता हुआ द्यूतकारों को देखकर कौतुक से भूषण को दाव पर लगाकर राजपुत्रों से खेला। और दस लाख लगाकर दस लाख रुपये जीत गया । फिर उन्होंने खेलना बंद किया । तब कुमार बाहर आया । याचक लोग उसके भूषणादि से आकर्षित होकर याचना करने लगे । उसने दस लाख का दान याचकों को कर दिया । जनमुख से | हेमपुराधीश ने कुमार की उदारता सुनकर उसे अपने प्रधान पुरुषों के द्वारा आदरपूर्वक बुलवाया । साहसिकों में अग्रणी वह भी गया ।