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दिव्यालंकार एवं अद्भुत लावण्य से सारी सभा विस्मित हुई। कुमार ने राजा को नमस्कार किया । राजा ने आलिंगन देकर अपने अर्धासन पर बैठने का आग्रह किया । पर वह विनय से राजा के सामने नीचे आसन पर बैठा । राजा के 'कुशल हो' ऐसे पूछने पर वह बोला “राजन् ! आज मेरा जन्म सफल हो गया ।' मेरे लोचन भी सफल हो गये। राजा ने कहा "महाभाग । तेरी आकृति दिव्य है। विनयादि गुण परस्पर सौभाग्य कर है। तेरी लावण्यकांति नेत्रों के द्वारा पान करने पर तृप्त नहीं होती। कुमार बोला "आपकी सौम्यदृष्टि से मैं धन्य हुआ ।" इस प्रकार परस्पर प्रीतिवाचक शब्दों से सभा का समय पूर्णकर दोनों राजमहल में गये । स्नान भोजन से निवृत्त होकर परदे में जाकर (गुप्तगृह में जाकर) आसन पर बैठकर कुमार से कहा। हे वत्स! मैंने जिस कारण से तुझे बुलाया है। वह सुन ।
"मेरी सौभाग्यशालिनी ललिता विमलादि पांच सौ रानियाँ हैं। उनके भानु भानुधर, भानुवीर आदि सौ पुत्र हैं। उनके ऊपर ललिता पटराणी की कुक्षि से जन्मी सौभाग्यमंजरी नामक एक पुत्री है। वह ६४ कलाओं में प्रवीण, लावण्य की खान प्रियभाषिणी और गुणयुक्त है । वह दान एवं युद्ध में उत्तम पुरुष को चाहती है । इसलिए मैंने रेणुका कुलदेवी की तीन उपवासकर आराधना की । उसने कहा 'युवराज के घर के पास द्युतपट्टक में दिव्यालंकार से विभूषित सुभगाकृतिवाला पुरुष दस लाख जीतेगा और दसों लाख याचकों को दान में दे देगा । वह सौभाग्यमंजरी का पति होगा । फिर मैंने तीन उपवास का पारणा किया । और पुत्रों से कह दिया था। और आज देवी का कहा हुआ सब पूर्ण हुआ । अब मेरी पुत्री का तुम स्वीकार करो ।" कुमार ने कहा "वंश गुण आदि जाने बिना कैसे पुत्री दी जाय? कहा है-कुल, शील, सनाथता, विद्या, वित्त, शरीर और वय ये सात बातें देखकर फिर कन्या देनी चाहिए।"
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