________________
44
ली। 'मेरे कर्म सद्ध्यान से ही क्षय होंगे । अतः मैं धर्मध्यान में ही रहूँ। मेरे पास मनोवांछित फलदायक सम्यक्त्व है। बस, वही मेरा संरक्षक है। ऐसा सोचकर उसने कार्योत्सर्ग ले लिया । परमेष्ठियों के स्मरण में ध्यानमग्न हो गया। उसके प्रभाव से गिरिमालिनी देवी का आसन कंपा । वह वहाँ आयी और बोली " मैं तेरी इस विपत्ति का विलय करने आयी हूँ । तू एक पंचेन्द्रिय प्राणी की बलि देकर मेरी पूजा कर ।" जयानंद ने कहा " आँख के साथ मेरे प्राण भी चले जायँ, तो भी मैं किसी प्राणी को नहीं मारूँगा । फिर देवी ने बली, भोज्यादि मांगा । जयानंद के मना करने पर देवी ने कहा 'केवल प्रणाम कर, जिससे मैं तुझे ठीक कर दूँगी ।" तब उसने कहा- मैं प्रणाम भी नहीं करूँगा । मेरा सम्यक्त्व मलीन हो जाय ऐसा कोई कार्य नहीं करूँगा । फिर वह क्रोधित होकर बोली मेरी अवज्ञा का फल देख। उसने प्रचंड वायु का उपद्रव किया । उसको वायु से आकाश में उठाकर नीचे फेंकने लगी । तब भी अक्षुभ्य होने से बीच में ही उसे धारण कर लिया । फिर संतुष्ट होकर बोली “हे महाभाग! यह औषधि ले । इसके रस से आँखे ठीक हो जायगी । फिर उसने देवी प्रदत्त औषधि लेकर घिसकर ( जल से ) आँख में लगा दी, पूर्व से भी अधिक दिव्यनेत्र हो गये । फिर देवी ने उसे जिस सम्यक्त्व के लिए तू इतना दृढ़ है उस सम्यक्त्व धर्म का स्वरूप बता । ऐसा कहा । तब जयानंद ने धर्म का स्वरूप समझाया । सुनकर उसे पूर्वभव की स्मृति हुई। देवी ने कहा- ' पूर्वभव में मैं श्राविका थी । परंतु पुत्र की अस्वस्थता में किसी झाड़ फूंक वाले से (मंत्र-तंत्र वाले से ) पूछा तब उसने भूतादि दोष बताकर मंत्र चूर्णादि का प्रयोग किया । भाग्य की प्रबलता से वह ठीक हो गया । तब मैंने प्रीतिपूर्वक उसे दान दिया । वह भी यदा कदा आता था । अपना शौचमूल धर्म बताता
11
५७