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भीम व सोम नामके राजा के प्रियपात्र थे । गुफा से एक कोस की दूरी पर राजा का गोकुल था। उसकी रक्षा के लिए वे वहाँ रहते थे । शिकार के लिए वन में आते थे । एकबार वे इस वन में आये । मृग को देखकर बाण मारा पर बाण न लगा । वे आश्चर्य में मृग के समीप आये । मुझे देखकर सोचा, 'इन महापुरुष के प्रभाव से अपने बाण स्खलित हुए हैं । ये कहीं हमें भस्म न कर दें' । इसलिए वे दोनों मेरे पास आये और बोले "हे तपस्वी ! हमारे अपराध की क्षमा करो । आपके मृगों को नहीं मारेंगे । हमको भस्मसात् मत करना।" तब मैंने धर्मलाभ देकर कहा-"तुमको अभय है। किन्तु धर्मतत्त्व सुनो । सभी जीवों को सुख प्रिय है। सभी जीवितव्य चाहते हैं। उनके जीवन का अपहरणकर नरकातिथि मत बनो। क्योंकि मांसाहार, परस्त्रीगमन और पंचेन्द्रिय वध से प्राणी नरक में जाता है। अहिंसा पालन से आरोग्य, बल, यश, नित्यसुख और परम कल्याण होता है।" इस प्रकार धर्मश्रवणकर प्रतिबोध पाकर उन दोनों ने सम्यक्त्व सहित प्रथम अणुव्रत
और मांसाहार का नियम लिया । भक्तिपूर्वक मुझे नमनकर स्वस्थान गये । व्रत की प्रतिपालना करने लगे। किसी समय उन दोनों के नियम का वृत्तांत सुनकर उस मिथ्यादृष्टि राजा ने क्रोधित होकर उनको आदेश दिया कि "जाओ, अलग-अलग मृग को मारकर ले आओ । जिससे आज तुम्हारे हाथ से मारे मृग के मांस से मेरी आत्मा को तृप्त करूँ । जाओ शीघ्र ले आओ ।' दोनों ने बाहर आकर निर्णय किया कि "मृग नहीं मिले'' ऐसा प्रत्युत्तर थोड़ी देर वन में घुमकर आकर दे देंगे। वे दोनों वन में गये। भीम ने सोचा ‘मृग को मारूँगा तो व्रतभंग और न मारुं तो राजा का कोप सहना पड़ेगा क्या करूँ? मैं परतंत्र हूँ। परतंत्रता में व्रतभंग का कोई दोष नहीं है । व्रत का फल परलोक में मिलेगा
और राजा का क्रोध तो अभी' इस प्रकार सोचकर मृग पर बाण मारने लगा। तब सोम ने उसे बहुत समझाया । परंतु उसने मृगों को मारकर