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राजा को अर्पण किये। सोम ने तो मुझे 'प्राण प्रिय है वैसे सभी को। प्राण प्रिय है। राजा कुपित होकर मेरे प्राण हर लेगा तो भी मैं इन तृणभक्षक पशुओं को नहीं मारूँगा ।'
क्योंकि कहा है “नीतिवंत लोक निंदा करे या स्तुति करे, लक्ष्मी आवे या जावे, आज ही मरण आ जाय या युगान्तर में आये । परन्तु धीरपुरुष व्रत से विचलित नहीं होते। सत्त्वहीन पुरुष तप, श्रुत, ज्ञान धनवाले किसी निमित्त को पाकर स्व धर्ममार्ग को तजते हैं । सज्जन पुरुष तो मृत्यु के समय भी अपने व्रत से विचलित नहीं होते ।"
इस प्रकार सोचकर मृगों को छोड़कर सत्त्वशाली सोम ने राजा को मृग नहीं मिला, ऐसा उत्तर देकर घर गया । राजा ने भीम ने लाये मग के मांस को आकंठ खाया । उसको बहुत दान दिया । फिर भीम से पूछा-"सोम मृग को क्यों नहीं लाया ।" तब भीम ने ईर्ष्या से सब कह दिया । राजा ने भीम को आदेश दिया । "मेरे सैनिकों को साथ ले जाकर मेरी आज्ञा का खंडन करनेवाले सोम को मारकर ले आ । मैं तुझे एक गाँव इनाम में दूंगा ।" ग्राम के लोभ से भीम सुभटों को लेकर गया । सोम को आशंका थी । वह पूर्ण होते देख सोम नगर के बाहर जाने लगा। भीम भी उसके पीछे गया। भीम ने सोम को देखा और कहा “रे दुष्ट! काल स्वरूप भूपाल के क्रुद्ध होने पर तू कितनी दूर भाग सकेगा ?" वह उसे देखकर जोर से भागा । थोड़ी देर में तो आगे के मार्ग पर थोटी छोटी मेण्ढकियां दिखायी दी । वह रुक गया । वह सत्त्ववान् पंच परमेष्ठि का ध्यान करता हुआ वहाँ ठहरा। भीम व भीम के सैनिकों ने बाण मारे पर एक भी बाण सोम को नहीं लगा । इतने में देव दुंदुभी हुई और सोम पर पुष्पवर्षा हुई । भीम और भीम के आदमीयों पर पत्थर वर्षा होने लगी। वे सभी भागे और राजा को जाकर सब वृत्तांत कहा । इधर देवी ने सोम के पास आकर मेंढकियों का अपहरण कर कहा। "तेरे धर्म की दृढ़ता से मैं प्रसन्न
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