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जन्मोत्सव मनाया। पुत्र का नाम श्री जयानंदकुमार दिया । अब दोनों पुत्रों का लालन-पालन धावमाताओं से होने लगा ।
कला ग्रहण आयु में कलाचार्य के पास रहकर कला ग्रहण करने लगे । समय पर दोनों कलाविद् हो गये । कुलादि सामग्री समान होने पर भी कर्म के कारण प्रकृति में भेद हुआ। सिंहसार अधर्मी, दुर्भग, अन्यायकर्ता और अप्रिय वचनी व अविनीत था । और 'श्रीजयानंद' शुद्धधर्मी, सत्यवचनी, शूर, परोपकारी, उदार, कृतज्ञ, जनप्रिय था । लोको में सिंहसार उसके दुर्गुणों के कारण अप्रिय होने लगा । उधर 'श्रीजयानंद' अपने गुणों के कारण प्रिय पात्र होने लगा ।
सिंहसार लोगो के मुख से जयानंद के गुणों की प्रशंसा और अपनी निंदा सुनकर क्रोधित होता हुआ बाहर से प्रीतिवान रहा । जयानंद तो अपने बड़े भाई के प्रति आदर और अंतरंग प्रीति धारण करता था । गुणी गुण को देखता है । दोषी दोष को देखता है । एकबार वसंतऋतु में उद्यान में क्रीड़ा करते हुए दिव्य गीत, वाद्य ध्वनि को सुनकर शब्दानुसार दोनों कुमार उस ओर गये । एक गुफा के पास एक मुनि भगवंत के पास देव - देवीयाँ नाचगान कर रहे थे । कुमारों ने वह अद्भुत नाटक देखा । इधर देवदुंदुभि बजने लगी । मुनि भगवंत को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । अनेक देव आये और महोत्सव किया । स्वर्णकमलासीन होकर मुनि ने देशना दी । जयानंद ने सम्यक्त्व ग्रहण किया और पूछा हे भगवंत ! यह नाटक करनेवाला देव कौन है ? केवलज्ञानी मुनि ने कहा- वैताढ्यपर्वत पर जयंत नामक विद्याधर सूर्यग्रहण देखकर प्रतिबोधित होकर दीक्षित हुआ । वह मैं श्रुताध्ययन कर गुर्वादेश से एकाकी विहार करते हुए चातुर्मास में विंध्याचल पर्वत की गुफा में उपवास करके रहा । उस गुफा से दो योजन की दूरी पर 'गिरिदुर्ग' नामक नगर है । वहाँ सुनंदराजा था । उसके दो सैनिक
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