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विवाह किया । विवेक युक्त चक्री ने वह्निवेग को मुख्य आठ नगर और शेष नगर विद्याधरों को दिये । फिर उत्तर श्रेणि में जाकर सभी विद्याधरों को जीते । उन्होंने भी हजारों कन्याएँ दीं। उनसे विवाहकर अपने नगर में सुखपूर्वक रहने लगा। इधर वह्निवेग संसार से उद्विग्न हो गया था । गुर्वागम तक संसार में रुका रहा संसार के स्वरूप को समझने वाला संसार में मग्न नहीं होता । वह तो सदा संसार को छोड़ने की इच्छावाला ही होता है । ऐसे आत्माओं का पुण्य भी प्रबल होता है। उसके पुण्य से आकर्षित उसके संसारी पिता चार ज्ञान के धनी महावेग नाम के विद्याचारण मुनि भगवंत पधारे । समाचार मिलते ही सपरिवार देशना श्रवणार्थ गया । वहाँ पिता मुनि की देशना श्रवणकर सातसौ पुरुष व स्त्रियों के साथ चारित्र ग्रहण किया । क्रमशः श्रीचन्द्र, श्री वह्निवेग, सहस्रायुध ये तीनों राजर्षि मोक्ष में गये । शतकण्ठ राजर्षि पाँचवें भव में मोक्ष में जायेंगे ।"
हे भव्यात्माओं ! इस वर्णन को सुनकर अपने हृदय में चारित्रधर्म के महत्त्व को समझकर संसार से विरक्त होकर चारित्र लेकर आत्मकल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ने का कार्य करे ।
चक्रायुध के दिग्विजय का वर्णन कहने के बाद अब जयानंद के जन्म आदि की बातें कही जाती हैं ।
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयपुर नगर था । वहाँ धर्म के प्रत्यक्ष फल को देखकर कोई नास्तिक नहीं था । वहाँ विजयलक्ष्मी से युक्त जय नामका राजा था । और विजय नामका उसका छोटा भाई युवराज था । सूर्य-चन्द्र के समान वे दोनों न्यायप्रिय थे । कहीं पर भी अनीति रूपी अंधकार नहीं था । वे मित्र को प्रसन्न होने पर पृथ्वी का दान देते थे । और शत्रु का नाश करते थे । उन दोनों को क्रमशः रति और प्रीति के समान विमला और कमला नामक रानियाँ थी । एकबार विमला ने सुखपूर्वक सोते हुए एक स्वप्न देखा । सिंह
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