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कि कन्याओं को वापिस दे दो या युद्ध के लिए सज्ज हो जाओं । चक्रायुध ने युद्ध के निमंत्रण को स्वीकारकर रथनुपुर को चला । दोनों सेनाओ में भयंकर युद्ध हुआ । सुभटों की निष्कारण मृत्यु से उद्विग्न वह्निवेग ने चक्रायुध से कहलवाया । हम दोनों आर्हत् हैं । युद्ध हम दोनों के लिए हैं । तो निष्कारण नर एवं पशुओं की हत्या क्यों करवाएँ हम दोनों ही युद्धकर, हार जीत का निर्णय कर लें । " चक्रायुध ने उसकी बात स्वीकार कर ली । दोनों में घमासान युद्ध हुआ । उसमें चक्रायुध ने वह्निवेग को दुर्जय मानकर चक्र को याद किया । चक्र हाथ में आया । चक्र वह्निवेग पर फेंका । हृदय पर चक्र की चोट से वह्निवेग मूर्छित हो गया तब चक्रायुध साधर्मिक के नाते उसको पंखे से हवा करने लगा । शीतल जल का छंटकाव किया । शुद्ध श्राद्ध होने से चिरकाल तक मूर्छा नहीं रही । संज्ञा को प्राप्त होने पर वह्निवेग ने सोचा, पूर्व में पिता के साथ दीक्षा ले ली होती, तो आज यह पराभव सहन करना नहीं पड़ता । यह दयालु और पराक्रमशाली है । अगर चक्र की आहत से मैं मर गया होता तो निश्चय से दुर्गति होती। क्योंकि पुण्य हीनों की सद्गति कैसे होगी ? इसकी चेष्टा से ऐसा लगता है कि यह दयालु और साधर्मिक पर भक्तिवान है। अब तो प्रणाम आदि से संतुष्ट करना ही ठीक है । ऐसा सोचकर बोला । हे राजन्! आपकी अद्भुत कृपा है। अपराधी को भी तुमने नहीं मारा । अब मेरा राज्य ले लो। भाई के साथ युद्ध नहीं करूँगा । मैं चारित्र ग्रहण करूँगा । शक्तिशाली जानकर तुमको मैं प्रणाम करता हूँ । चक्रायुध ने - मैं तेरे राज्य का इच्छुक नहीं हूँ । तुमने प्रणाम कर दिया । बस तुम राज्यश्री का उपभोग करो। फिर वह्निवेग ने उसको ससम्मान राज्य में ले जाकर स्व- पर पांचसौ कन्याएँ और दीं । पूर्व की शतकन्याओं के पिता ने भी प्रणामपूर्वक अपनी कन्याएँ दीं । वहाँ से सभी विद्याधर राजाओं ने उसका स्वामीत्व स्वीकार किया। सभी ने प्राभृत में गजअश्व-रत्नालंकार आदि दिये । हजारों विद्याधर कन्याओं के साथ वहाँ
कहा
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