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भी सम्यक्त्व स्वीकारकर गुरु एवं पिता मुनि आदि को नमस्कारकर नगर में गया । अनेक लोगों ने भी सम्यक्त्वादि ग्रहण किया। गुरु ने सपरिवार अन्यत्र विहार किया। सहस्रायुध राजर्षि ग्रहण-आसेवन शिक्षा को ग्रहणकर शास्त्रों का अध्ययनकर, गीतार्थ हुए। अनेक शिष्यों के स्वामी हुए । क्रमशः गुरु ने उन्हें आचार्यपद दिया ।
महापराक्रमशाली चक्रायुध विद्यादेवी के द्वारा दिये गये चक्र से नामकी साम्यतावाला हो गया । चक्रायुध नाम सार्थक हो गया । फिर अन्य, कृत्रिम रत्न बनाकर उसने स्वयं को 'चक्री' प्रसिद्ध किया। सभी राजाओं को जीतना प्रारंभ किया । एकबार वह प्रियाओं के साथ नंदीश्वरद्वीप के अर्हन्त भगवन्त के सामने नृत्य कर रहा था । उसकी पत्नियाँ विविध वाद्य बजा रही थी । नृत्य और भक्ति देखकर किसी देव ने अर्हत् भक्ति से खुश होकर कामीतकरी विद्या दी । विद्या और साधनाविधि विनयपूर्वक ग्रहणकर, भगवन्त को वंदनकर, देव को प्रणामकर वह पत्नियों सहित अपने नगर में आया । एकबार राजा देवप्रदत्त विद्या को किसी वन में सिद्ध करने गया । इधर लंकेश शतकंठ मेरुपर्वत पर के जिनबिंबो को वंदनकर लंका जा रहा था। विद्यासाधक चक्रायुध के उपर से विमान जाने से विमान स्खलित हुआ। नीचे चक्रायुध को देखकर क्रोधांध होकर लंकेश ने उसको एक वृक्ष के साथ नागपाश से बांधकर अपने नगरमें गया । फिर भी चक्रायुध ध्यान से विचलित न होने से विद्या शीघ्र सिद्ध हो गयी और वह नागपाश को तोड़कर बोली । वत्स! तेरे सत्त्व से मैं खुश हूँ। मेरी कृपा से तुं जगत विजेता बन । कार्य पड़ने पर मुझे याद करना। ऐसा कहकर वह अंतर्ध्यान हो गयी। चक्रायुध ने शतकंठ का कार्य प्रज्ञप्ति विद्या से जाना । विद्यासिद्ध चक्रायुध मंगल महोत्सवपूर्वक नगर में आया।
एकबार विद्याधर युगल ने चक्रायुध से कहा । “अयोध्या पति की आठ कन्याएँ आपके योग्य हैं । उनका पाणिग्रहण करना