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चाहिए ।" वह दिग्यात्रा के लिए जाना चाहता था । विशालसेना के साथ प्रयाण किया । अयोध्या के उद्यान में पहुँचा। राजा को समाचार भेजे । कन्या सहित दण्ड दो । तब श्रीचन्द्रराजा ने युद्ध की तैयारी की । युद्ध प्रारंभ हुआ । चक्री की सेना पराजित होने लगी। तब चक्रायुध ने श्रीचन्द्र को बाणों के आक्रमण से व्याकुल कर दिया । तब श्रीचन्द्र ने अपने पूर्व के आराधित देव को याद किया । देव आया । श्री चन्द्र ने कहा "चक्रायुध को बांधकर मेरे पास ले आओ" देव बोला " इसके प्रबल पुण्योदय के कारण मैं ऐसा नहीं कर सकता । दूसरा कोई कार्य कहो ।"
मानव के पुण्य की प्रबलता हो तो देव-दानव भी उसका अहित नहीं कर सकते ।
श्रीचन्द्र ने कहा "मुझे सद्गुरु के पास ले जा । जिससे मुझे पराभव सहन करना न पड़े मैं वहाँ चारित्र ग्रहण कर लूंगा ।" तब देव ने चक्रायुध के शस्त्रों को स्तंभित कर दिया और श्रीचन्द्र को सद्गुरु के पास ले गया । वहाँ उसने चारित्र ले लिया । चक्रायुध ने अपने सामने श्रीचन्द्र को न देखकर जाँच करवायी तो श्रीचंद्र की दीक्षा के समाचार मिले । विस्मित चक्रायुध दोनों सेनाओं के साथ गुरु के पास गया । गुरु को और राजर्षि को वंदन किया । श्रीचन्द्रराजा की निस्पृहता से आकर्षित होकर उसके पाँचसौ मंत्रियों ने प्रतिबोध पाकर प्रव्रज्या ग्रहण की । चक्रायुध ने राजर्षि से क्षमायाचना की । श्रीचन्द्र के पुत्र को राज्य दिया । उसने अपनी आठों बहनों का विवाह चक्रायुध से किया । भूचरों में श्रीचन्द्र को जीता, तो सबको जीत लिया । ऐसा मानकर वह शतकण्ठ के पूर्व अपराध को यादकर लंका की ओर चला । शतकण्ठ ने उसको आते हुए जानकर लंका के चारों और साठ योजन का आग का दुर्ग बनवा दिया । तब चक्री ने ज्वालिनी
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