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रहेगा ।" देवी गयी । राजा रात को अंत:पुर में आया । उनको लाने को दासी भेजी । दासी उन दोनों को वहाँ लायी । राजा ने देवी के अनुभाव से पैर और मुख को छोड़कर कुष्ठ रोगवाली प्रीतिसुन्दरी को देखा । तब राजा के पूछने पर प्रीतिसुंदरी ने कहा "यह रोग चिरकाल से है । वैद्यों से असाध्य है ।" गुणसुन्दरी के पास जाने पर असहनीय दुर्गंध उसके शरीर से निकलते देख, पूछने पर उसने असाध्य रोग कहा । राजा ने उन दोनों को चित्रशाला में भेज दिया । फिर स्वयं सोचने लगा । 'धिक्कार है भाग्य को जिसने ऐसी रुपवान् स्त्रियों को ऐसी पीड़ित की हैं । मैंने वस्त्राछादित होने से जाना नहीं । उस पुरोहित ने मेरी बुद्धि बिगाड़ दी । उसने ही मुझसे यह पाप करवाया है । सर्वगुण संपन्न मंत्री को मैंने कष्ट में डाला । मैंने धर्म, कीर्ति, कुल और यश मलीन किया। यह सब पुरोहित का ही कपट होगा । वह पुरोहित दंभी, अधम ही है । मंत्री के द्वारा तिरस्कृत होने से, उसने ही मंत्री को अपाय कष्ट में डाला है । अब प्रातः मंत्री को पुनः मंत्री पद पर बिराजमानकर उसकी पत्नियाँ उसे देकर अपराधी को दंडित करूंगा ।' ऐसा विचारकर रात्रि पूर्ण की । प्रातः राजसभा में उस लेख लानेवाले को बुलाया और पूछा "सत्य बोल, यह लेख तुझे किसने दिया ।" डर से न बोलने पर सैनिकों ने ताड़ना दी । तब विप्र बोला "मुझे मत मारो । मुझे स्वर्ण का लोभ देकर यह कार्य पुरोहित वसुसार ने करवाया है ।" फिर राजा ने उस लेख को पुनः पढ़ा
और अक्षरों का निरीक्षण किया । वसुसार के अक्षर पहचाने । फिर अपने प्रधान पुरुषों को भेजकर मंत्री को सम्मानपूर्वक राजसभा में बुलाकर गाढ़ आलिंगन देकर आभूषणादि से सत्कारकर, पूर्ववत् मंत्री पद प्रदान किया । उसकी प्रियाओं को वस्त्राभूषणादि