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नहीं देना है । मेरे किए हुए कर्मो का ही यह फल है । अब राजा की विपरीतता के कारण मेरा रक्षक कोई नहीं है । प्रियाओं के शील रक्षण का उपाय भी कोई नहीं । अब तो चिरकाल से आराधित जैन धर्म ही मेरा एक मात्र शरण है । धर्म को पाये हुए लोगों को प्रायः देव वांछित फल देते हैं । अगर मैंने धर्म स्वीकार करने के दिन से शील, सम्यक्त्व में किंचित् विराधना न की हो, तो मेरी विपत्ति शीघ्र नष्ट हो । ऐसा सोचकर मंत्री ने कायोत्सर्ग किया। उससे आकर्षित शासनदेवी ने साक्षात् प्रकट होकर कहा "तेरी विपत्ति नष्ट हो गयी । कायोत्सर्ग को पार । प्रातः राजा स्वयं सत्कार करेगा, तब ज्ञात होगा । " ऐसा कहकर वह गयी । मंत्री ने धर्म महात्म्य पर विचार करते हुए कायोत्सर्ग पूर्ण किया । इधर मंत्री पत्नियाँ भी शील भंग की आशंका से चित्रशाला में रहते हुए पश्चात्ताप करने लगीं । राजा ने उनको वश में करने हेतु दासी भेजी । तब उन्होंने दासी को धक्का देकर निकाल दिया । स्वर्ग समान चित्रशाला में भी वे अपने को कारागृह में मानने लगी, और विचारने लगी । पति एवं स्वजनों पर विपत्ति से भी शील भंग की विपत्ति बड़ी है । अगर राजा ने शीलभंग का प्रयत्न किया, तो हम मर जायेंगी। कहा है"
प्राणत्याग उत्तम न शील खंडन, प्राण त्याग में क्षण दुःख और शील खंडन में नरक दुःख । अनार्यों के द्वारा पराभव होता हो तो राजा शरणभूत होता है । परंतु राजा ही अमर्यादी हो जाय तो रक्षक कौन ? अब तो धर्म ही शरण है । वही इस विकट संकट में रक्षा करेगा । उन्होंने सोचा कि हमने सम्यक्त्व और शीलादि धर्म को मन से न विराधा हो तो हमारा शील अखंडित रहो । हम तब तक कायोत्सर्ग में रहेगी।' दोनों कायोत्सर्ग में रही । तब देवी ने प्रकट होकर कहा "काउस्सग्ग पार लो । मैं ऐसा करूंगी जिस से तुम्हारा शील अखंडित
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