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आरामिक के भव में सप्रेयसीद्वय युक्त जिनपूजा की । फिर नरवीर राजा का मतिसुंदर मंत्री हुआ । वे ही पत्नियाँ हुई। अतिबल राजर्षि से उत्तम अर्हद्धर्म पाकर शुद्ध आराधना की । वहाँ से देवलोक में गया । वहाँ से तू जयानंद हुआ । वे ही तेरी दोनों पत्नियाँ रतिसुंदरी-विजयसुंदरी हुई। नरवीर राजा धर्माराधन कर देव हुआ । वहाँ से चक्रायुध विद्याधर श्रेणि का राजा हुआ । वह वैराग्यवान् चतुर्ज्ञानी मैं हूँ । पूर्वभव में मैंने स्त्री के लिए तुझे कारागृह में डाला था, उसी कर्मोदय से तूने मुझे वज्रपिंजरे में डाला । वहाँ मैंने तुझे शीघ्र छोड़ा था । गाढ़ प्रीति थी । यहाँ तुने मुझे शीघ्र छोड़ा । उस भव में मुझे धर्मदान दिया था । अब मैं तुझे धर्मदान देने आया हूँ । तुमने और मैंने मंत्री और राजा के भव में अर्हद् धर्म की उत्कृष्ट आराधना की थी । उसके फलरूप में इस भव में भोग-सुख के साथ अखंड राज्य संपत्ति प्राप्त हुई । तुझ में धर्म की श्रद्धा अधिक हुई । तूने अमात्य के भव में मुनि को 'क्या तेरे नैत्र गये' ऐसा कहा था । उसका तीव्र पश्चात्ताप किया था जिससे अधिक कर्मक्षय हो गया था । कुछ अवशेष था इसलिये थोड़े समय के लिए तेरे नैत्र गये । तेरी प्रथम पत्नि ने मुनि को कहा था 'जैन मुनि निर्दाक्षिण्य होते है, दाक्षिण्यता तो उच्चकुल में होती है इसका कुल उच्च नहीं होगा ।' ऐसा कहने से पश्चात्ताप के बाद कुछ अंश अवशेष रहने से गणिका की कुक्षी से रतिसुंदरी का जन्म हुआ । दूसरी पत्लिने इस अंध को भिल्ल को देना चाहिए। ऐसा कहा था, जिसका पश्चात्ताप किया था । परंतु अवशेष कर्मोदय के कारण भिल्ल को विजयासुंदरी दी गयी और थोड़ी देर के लिये आँखे भी गयी । पूर्वभव के स्नेह से इसभव में स्नेह अधिक गाढ़ हुआ ।
नरवीर राजा का वसुसार पुरोहित का जीव नरकादि भवों
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