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व्रत स्वीकार किये । फिर साधुओं ने वहाँ से विहार किया । जयानंदराजा अपने राजमहल में गया।
जयानंद राजा को धर्म का मुख्य फल सुख की प्राप्ति था। दूसरा फलोदय लाख पुत्र, वे भी न्यायी, दक्ष, पवित्र, सर्वकलाविज्ञ, धर्मज्ञ, मतिमान्, पितृभक्त थे । पौत्रादि परिवार भी लाखों की संख्या में था। सब जैनधर्म में प्रवीण थे। धर्म-कर्म में सतत प्रवर्तमान थे। उनके मंत्री, सेनापति, नगरशेठ, पुरोहित, सभी धर्म-कर्म में प्रवीण एवं समर्पित थे। जयानंद राजा एक सौधनुष्य की कायावाला, दो लाख पूर्वका आयुष्यवाला, कंचनवर्णवाला, निरामय, न्यायी श्री सुविधनाथ के शासन को उद्योतित करता हुआ, तीन खंड का अधिपत्य भोग रहा था । उसके राज्य में दानशालाओं में सब प्रकार की व्यवस्थायें थी । परदेश से आनेवाले अति संतुष्ट होते थे । उसने प्रतिग्राम नगर में जिन प्रासाद बनवाकर जिन बिम्बों की प्रतिष्ठाएँ करवायी थी। उसने राज्य में सातों व्यसनों को दूर कर दिये थे ।
जयानंद राजा की राज सभा में एकबार उद्यान पालक ने आकर समाचार दिये कि प्रधान श्रमणों से उपासित, सच्चारित्रवंत, चतुर्ज्ञानी लोकावधि ज्ञानवान् आचार्यवर्य श्री चक्रायुधराजर्षि पधारे हैं। सुनते ही रोमांचित होकर उसे आभूषणादि से सत्कारितकर स्वयं पटह उद्घोषणा करवाकर, विशाल परिवार के साथ दर्शन वंदन के लिये चला । पंचाभिगमपूर्वक त्रि प्रदक्षिणा देकर, विधिपूर्वक अत्यंत आनंदपूर्वक सपरिवार वंदनकर, यथायोग्य स्थान पर बैठा। अवधिज्ञानी मुनि भगवंत ने संसारभवोदधितारण देशना दी। देशनान्ते जयानंद राजा के पूछने पर स्वयं का और जयानंद का पूर्वभव का वर्णन सुनाया ।
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