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मंत्री के द्वेष से पुरोहित बोला 'हे स्वामिन् ! गज अश्व आदि सभी अन्य राजाओं से अधिक हैं, परंतु धर्म अर्थ काम में पुरुष के लिए काम ही सुखकर है । धर्म-अर्थ का फल काम ही है। वहाँ भी काम का मुख्य साधन स्त्री है । वह भार्या आपके पास नहीं है । इससे मैं मानता हूँ कि राज्यादि समृद्धि सब निष्फल है।" विस्मित होकर राजा बोला "रे विप्र! क्यों असत्य बोल रहा हैं । बहुत सारी स्वरूपवान व गुणवान रानियाँ हैं ।' विप्र बोला "बहुत हैं, परन्तु उनमें आपके अनुरूप एक भी नहीं है। अतः सत्तामात्र से क्या? संख्यामात्र से क्या? कौद्रवा का भी भोजन, काँच के भी अलंकार, खारा जल भी तृषा छेदे, वल्कल से भी देह आच्छादित किया जाय, परंतु वे घृतपूर्ण, कनक, द्राक्षजल दैवीवस्त्र समान तो कार्य नहीं कर सकते। वैसे ही तुम्हारी स्त्रियाँ स्त्री का कार्य नहीं कर सकती। तब राजा ने पूछा "क्या मेरी प्रियाओं से भी रूप, सौभाग्य और गुणाधिक अंगना कहीं देखी या सुनी है?" विप्र बोला "स्वामिन् ! मैंने दो स्त्रियाँ साक्षात् देखी हैं। उनका रूप देखकर ही मैं तुम्हारी प्रियाओं को तृण समान मानता हूँ। राजा ने पूछा “किसके घर? वे कन्याएँ परिणीत हैं या अपरिणीत?" वह दुष्टात्मा बोला "अशक्त और अनुद्यमी ऐसे तुम्हारे द्वारा पूछना भी व्यर्थ है।" राजा ने कहा ऐसा क्यों बोलता है । क्या मैं अशक्त और अनुद्यमी हूँ?'' विप्र ने कहा "अगर ऐसा है तो वे स्त्रियाँ आपके मंत्री की पत्नियाँ हैं। आपका वह नौकर है । वहाँ कौनसा पराक्रम? उद्यम कर के अंत:पुर में ले आइए । वे तुम्हारे ही योग्य है। क्योंकि स्त्रीरत्न उचित स्थान पर शोभा देता है। तुम्हारा रूप, ऐश्वर्य, पराक्रम, राज्यादि सभी उन दो स्त्रिीयों के बिना निष्फल समझना स्त्रियों से अधिक कुछ नहीं है । किंकर की प्रिया तुमसे अधिक रूपवान हो तो किंकर को लज्जा आनी चाहिए । स्वामी से ज्यादा