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भोग उचित नहीं है। गृह आदि सभी स्वामी से न्यून चाहिए। आपको तो उसकी प्रिया को अंत:पुर में लाकर उसे सजा देनी चाहिए।" इस प्रकार विप्र वचन को सुनकर उद्धत कामवासना वाले ने भी विचारा ‘परस्त्री परिहार नामक व्रत का' मैं खंडन नहीं करूंगा । फिर विप्र से कहा "सब अच्छा करूंगा।' विप्र वहाँ से घर गया ।
राजा की आज्ञा लेकर मंत्री ने एक जिनचैत्य बनवाया था । उसमें जिन बिंब प्रतिष्ठित करने के प्रसंग पर विशाल पैमाने पर साधर्मिक वात्सल्य का आयोजन किया और राजा को भी सपरिवार निमंत्रण दिया । राजा ने सोचा "चाहता था वहीं हुआ'' मैं मंत्री पत्नियों को इस मौके पर देख लूंगा । समय पर राजा गया । भोजन परोसने का कार्य मंत्री अपनी पत्नियों सहित कर रहा था । राजा को अधिक आदरपूर्वक तीनों भोजन परोसते थे । कौए की दृष्टि घाव पर रहती है । वैसे ही राजा की दृष्टि मिष्टान्नभोजन पर न रहकर, बार-बार स्वरूपवान चमड़े से ढकी विष्टा की पुतली पर जा रही थी । फिर भी जैसे तैसे भोजन पूर्णकर काम विह्वलता को छुपाकर, मंत्री प्रदत्त तांबूल दिव्यदुकूल आभरण आदि को स्वीकारकर घर आया । एक बार एकान्त में विप्र को राजा ने कहा 'मंत्री पत्नियाँ तो तूने कहा उससे भी अधिक रुपवान हैं ।' विप्र ने कहा "मैं तो आपका चाकर हूँ । क्या मैं आपसे झूठ बोलूंगा ? अभी आप उनको अंत:पुर में लाकर कृतार्थ बनें ।" भूपति बोला 'ऐसा कैसे करें ? क्योंकि परस्त्री परिहार के व्रतभंग से तो दुर्गति होगी, अपयश फैलेगा, स्वकुल मलीन होगा, उनको ग्रहण करने से लोक निन्दा करेंगे । एकान्त में उनको लेने का कोई उपाय भी नहीं है । वैसे मंत्री मेरा धर्म मित्र भी है । सुश्रावकों में अग्रेसर है, धर्म सहायक होने से उपकारी है, विनयी है,