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उपाय से मंत्री का अनर्थ तो करूंगा । ऐसा विचारकर पुरोहित अपने घर गया I
अब वह मंत्री के छिद्रों को देखने लगा । मेरी नास्तिकता के कारण राजा मेरे अधीन नहीं होगा । राजा अधीन हुए बिना मंत्री का अनर्थ करने में मैं असमर्थ हूँ । ऐसा सोचकर किसी साधु के पास जैनी क्रिया का अभ्यासकर मायावी श्रावक बनकर राजा की सेवा करने लगा । मंत्री के समान श्रावकाचार की बातें करता हुआ राजा को मोहित करने लगा । धर्मदंभ से कौन ठगा नहीं जाता ?
मंत्री ने उसकी माया जान ली थी पर उसने उपेक्षा भाव रखा । और पुरोहित राजमान्य हो जाने से कारण के बिना दूर करना भी संभव नहीं था । पुरोहित धर्मशास्त्रों की बातों के साथ राजा को कामशास्त्र की बातें भी सुनाकर मनोरंजन करता था । इस प्रकार प्रतिदिन होने से कामराग ने धर्मराग को धक्का दे दिया । जैसे मजीठ का रंग काजल के संग से नष्ट होता है । अगर की गंध लहसुन से नष्ट होती है । एक बार किसी कार्य से पुरोहित मंत्री के घर गया। मंत्री ने उसे आसन देकर (आलाप संलाप से) सम्मानित किया ।
पुरोहित ने इधर उधर देखते हुए मंत्री की दोनों पत्नियों को देखा । और सोचा 'अहो ! इनका अनुपम सौंदर्य है। रूप के अनुमान से गुण भी निश्चय से संभवित हैं । धन्य हैं इस मंत्री को जिसको ऐसा भोग संगम मिला है । साथ में मेरी इच्छा पूर्ति का उपाय भी मिल गया है।' पुरोहित कार्य पूर्णकर स्वगृह गया । पुरोहित लग्नादि बल से अनागत बातें बताकर राजा को खुश भी करता था । एक बार एकांत में राजा ने पुरोहित को पूछा 'हे पंडित ! मेरे राज्य में कोई न्यूनता तो नहीं है ? तब
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